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________________ १२७ चारित्र चक्रवर्ती नाम पर व्यवहार धर्म को छोड़ते जा रहे हैं, सो यथार्थ में ठीक मार्ग क्या है ? महाराज बोले कि व्यवहार फूल के सदृश है। वृक्ष में सर्वप्रथम फूल आता है। बाद में उसी पुष्प के भीतर फल अंकुरित होता है और जैसे-जैसे फल बढ़ता जाता है, वैसे वैसे फूल संकुचित होता जाता है, और जब फल पूर्णवृद्धि को प्राप्त हो जाता है, तब पुष्प स्वयं पृथक् हो जाता है। इसी प्रकार प्रारम्भ में व्यवहार धर्म होता है, उसमें निश्चयधर्म का फल निहित रहता है। धीरे-धीरे जैसे निश्चय तप रूपी फल बढ़ता जाता है, वैसे वैसे व्यवहार तप रूपी पुष्य स्वयं संकुचित होता जाता है, अन्त में निश्चय की पूर्णता होने पर व्यवहार स्वयं दूर हो जाता है। आचार्य महाराज ने जो व्यवहार को पुष्प और निश्चय को फूल के रूप में समझाया, वह बड़ा सुन्दर कथन है। निश्चय की वृद्धि होने पर व्यवहार स्वयं कम होते होते घट जाता है, छोड़ा नहीं जाता है। मर्म की बात अवलंबन लेने के लिये आगम कथित रूप-भेद, भक्ति आदि व्यवहारनय के विषय हैं। देवशास्त्र आदि का आश्रय-रहित हो निर्विकल्प आत्मध्यान में समर्थ महर्षि निश्चयदृष्टि के स्वामी बनते हैं। गृहस्थ के वह नहीं होती हैं। महाराज ने कहा-“द्रव्यानुयोग मार्ग का निश्चय कराता है। चरणानुयोग पांव सदृश है। मार्ग का निश्चय करके यदि पांव न हिलाए जाएँ, तो लक्ष्य पर कौन पहुंच सकता है?" क्या जमान खराब है ? एक दिन महाराज के सामने यह चर्चा चली कि आज का जमानाखराब है, शिथिलाचार का युग है। पुराना रंग ढंग बदल गया, अतः महाराज को भी अपना उपदेश नए ढंग का देना चाहिए। __महाराज बोले-“कौन कहता है जमाना खराब है। तुम्हारी बुद्धि खराब है, जो तुम जमाने को खराब कहते हो। जमाना तो बराबर है। सूर्य पूर्व में उदित होता था, पश्चिम में अस्त होता था, वही बात आज भी है। अग्नि उष्ण थी, जो आज भी उष्ण है। जल शीतल था, सो आज भी शीतल है। पुत्र की उत्पत्ति स्त्री से होती थी, आज भी वही बात है। गाय से बछड़ा पहले होता था, यही नियम आज भी है। इन प्राकृतिक नियमों में कोई भी अन्तर नहीं पड़ा है, इससे अब जमाना बदल गया है, यह कहना ठीक नहीं है। जमाना बराबर है। बुद्धि में भ्रष्टपना आ गया है। अतः उसे दूर करने को/स्वच्छ करने को, पापाचार के त्याग का उपदेश देना आवश्यक है।" कितना मार्मिक उत्तर है यह। ऐसे ही मार्मिक उत्तर कठिन से कठिन, जटिल से जटिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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