SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य-पद प्रश्न के समाधान में पूज्यश्री के द्वारा प्राप्त होते हैं। इतना होते हुए भी महाराज विवेक के प्रकाश में अपने नियमोपनियमों को ऐसा रखते थे, जिससे लोगों को कष्ट भी न हो तथा उनके सिद्धांत का व्याघात भी न हो । वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव १२८ एक बार की बात है। महाराज वृत्तिपरिसंख्यान तप में बड़ी कठिन प्रतिज्ञाएं लेते थे, और उनके पुण्योदय से प्रतिज्ञा की पूर्ति होती थी । एक दिन महाराज ने प्रतिज्ञा की थी कि आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय मिलेगी तो आहर लेंगे। यह प्रतिज्ञा उन्होंने अपने मन के भीतर ही की थी और किसी को भी इसका पता नहीं था । अन्तराय का उदय नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महाराज का आहार निरंतराय हो गया। लगभग सन् १६३० के शीतकाल में आचार्यश्री ग्वालियर पहुँचे। जोरदार ठंड पड़ रही थी। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि गीले वस्त्र पहिन कर यदि कोई पड़गाहेगा तो आहार लेंगे, अन्यथा नहीं। लश्कर में अनेक गुरुभक्त द्वारापेक्षण को खड़े थे । कहीं भी योग न मिला। महाराज ने घरों के सामने से दो बार गमन किया। लोगों ने निराश होकर सोचा, आज योग नहीं है। लोगों के वस्त्र अन्यों के स्पर्श से अशुद्ध हो गये। एकदम महाराज तीसरी बार लौट पड़े। एक श्रावक ने तत्काल पानी डालकर वस्त्र गीले किये और पड़गाहा । विधि मिल जाने से उनका आहार हो गया। एक समय उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि कोई थाली में जवाहरात रखकर पड़गाहेगा, तो आहार लेंगे, अन्यथा उपवास करेंगे। यह घटना कोल्हापुर की थी। उस दिन वहाँ के नगर सेठ के मन में थाली में बहुमूल्य जेवर-जवाहरात रखकर पड़गाहने की इच्छा हुई। अतः यह योग मिल गया । दातार सेठ को उत्तम पात्र को आहार दान देने का योग मिला इस प्रसन्नतावश और आहार निरन्तराय हो जाय इस चिन्तावश सेठजी को यह ध्यान नहीं रहा कि मैं बहुमूल्य आभूषणों आदि को उठाकर भीतर रख दूं। वे बाहर के बाहर ही रह गए ज्यों ही महाराज का आहार प्रारंभ हुआ कि सेठजी को अपनी बहुमूल्य सामग्री का स्मरण हो गया। उस समय उनकी मानसिक स्थित अद्भुत थी । यहाँ उत्तम पात्र की सेवा श्रेष्ठ सौभाग्य था और वहाँ हजारों का धन जाने की आशंका हृदय को व्यथित कर रही थी । आचार्य महाराज की दृष्टि में ये सब बातें पहले से ही थीं। उस समय सेठजी की मनोव्यथा देखकर महाराज के मन में दया का जागरण हुआ । अतः भविष्य में उन्होंने ऐसी प्रतिज्ञा न करने का निश्चय किया । आहार के बाद ही सेठजी बाहर आए, तो वहाँ आभूषणों की थाली नहीं थी। इस बीच में क्या हुआ था, जो उपाध्याय वहां आया था उसकी दृष्टि सौभाग्य से आभूषणों पर पड़ गई थी, अतः उसने अपने विवेक की प्रेरणा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy