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________________ १२६ आचार्य-पद और चारित्र का बड़ा सम्बन्ध है, तब एक की ही प्रशंसा क्यों ?" कानजी चर्चा एक बार महाराज ने बताया-"गिरनारजी की यात्रा से लौटते समय कानजी हमको दूर तक लेने गये। सोनगढ़ में आकर हमने कानजी से एक प्रश्न पूछा- "इस दिगम्बर धर्म में तुमने क्या अच्छा देखा? और तुम्हारे धर्म में क्या बुरा था?" इस प्रश्न के उत्तर में कानजी ने कुछ नहीं कहा। बहुत देर तक मुख से एक भी शब्द नहीं कहा।" इस पर आचार्यश्री ने कानजी से कहा- "हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। हमें तुम्हारा भाव जानना है।" इसकेपश्चात् क्या हुआ, उसे महाराज ने इस प्रकार बताया-“कानजीने पूछा "महाराज, समयसार की एक गाथा में कहा है नव पदार्थ भूतार्थ हैं, यह गाथा प्रक्षिप्त मालूम पड़ती है; क्योंकि जीव पदार्थ ही भूतार्थ हो सकता है ?" इसके बाद सामायिक का समय आ जाने से महाराज उठ गए। प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ।" महाराज ने कहा “सामयिक के समय मन स्थिर रहता है। उस समय हम विचार करते हैं। सामायिक के बाद हमने पूर्वापर प्रसंग की गाथाएं देखीं, फिर कहा-“अज्ञानी किसान को भी सम्यक्त्व खोजना है उसे सम्यक्त्व कहां मिलेगा ? जीव में मिलेगा, यही उत्तर होगा। पुनः प्रश्न होगा, जीव कहां मिलेगा? इसका उत्तर होगा कि जीव नव पदार्थों में मिलेगा। जीव का संबंध आस्त्रव, बंध, संवर आदि के साथ है। जीव इकाई के समान है शेष सब उसके साथ शून्य के समान हैं। इससे समयसार की गाथा प्रक्षिप्त नहीं हो सकती है।" महाराज ने एक उदाहरण दिया था-"ज्वारी के ढेर में किसी का मोती गिर गया। वह ज्वार के समस्त दानों को देखता है। उनमें से मोती प्राप्त हो जाने पर वह उन ज्वार के दानों को फिर नहीं देखता है। इसी प्रकार जीव का आत्मा आस्त्रवादि में खो गया है। वह गुणस्थान, मार्गणा स्थानों में खोजता फिरता है। उस आत्मरत्न के प्राप्त होते ही, वह खोज को बंद करके स्वरूप का रसपान करता है।" महाराज के इस विवेचन को सुनकर कानजी चुप हो गए। इस प्रबल तर्क के विरुद्ध क्या कहा जा सकता था ? उस समय स्व. आचार्य धर्मसागरजी भी विद्यमान थे। ब्र. जिनदासजी समडोलीकर भी थे। उन्होंने उक्त बात का समर्थन किया था। महाराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे थे। व्यवहार निश्चय का सुन्दर समन्वय अनेक विद्वान् बंधुओं ने पूज्यश्री की सेवा में निवेदन किया कि लोग निश्चय तप के - १. भूयत्थेणाभिगदाजीवाजीवाय पुण्ण पावंच। आसव-संवर-णिज्जरबंधो मोक्खोयसम्मत्तं ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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