SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२३ चारित्र चक्रवर्ती तनिक भी शांति नहीं है। आत्मा में भयंकर अशांति ही अनुभव में आ रही है। आपका अनुभव क्या है ?" __ महाराज बोले-“हमारी आत्मा में अशान्ति होती ही नहीं। कैसे भी कारण आवें, हमारी आत्मा में हमेशा शांति ही रहती है, क्योंकि हमने अशांति के कारणों को हटा दिया है। अशांति के कारण हमारे पास नहीं हैं, तब अशांति क्यों होगी?" उस समय समझ में आया कि क्यों आचार्यश्री को शांतिसागर कहते हैं। वे यह भी बोले-“यह ध्यान आसन्न भव्य जीव के होता है।" इससे ध्यान करने में असमर्थ आत्मा की स्थिति समझी जा सकती है। सम्यक्त्व (आत्मा और भगवान दो नहीं हैं) ___जिस सम्यक्त्व के होने पर संसार का बंधन नष्ट होता है, उसके विषय में पूज्यश्री से चर्चा चली, तब महाराज ने कहा,“शुद्ध आत्मा का अनुभव खरा सम्यक्त्व है। तत्त्वार्थ श्रद्धान तो उपचार सम्यक्त्व है।" । ___ उन्होंने यह भी महत्व की बात कही, “यदि सम्यक्त्व समझते नहीं, तो व्रत करके देवगति जाना चाहिए, वहाँ से विदेह पहुंचकर तीर्थकर भगवान के पास जाना चाहिए, वहां उनकी दिव्यध्वनि से सब कुछ तत्त्व समझ में आ जायगा।" महाराज ने कहा"हम खातरी से कहते हैं कि सम्यक्त्व की महिमा ऐसी है कि उससे मोक्ष अवश्य मिलेगा।" ___ “आत्मा की रुचि सम्यक्त्व है। जब आत्मा नहीं मालूम तब किस पर श्रद्धान करोगे? भगवान को देखा नहीं, किस पर श्रद्धान करोगे? शास्त्र गुरु मूर्ति मन्त है। आत्मा अमूर्तीक है, उस पर कैसे श्रद्धा करोगे ? वस्तु तो आपको मालूम ही नहीं है ! अरे ! आत्मा और भगवान दो नहीं हैं। इसे देखा, तो उसे देखा। अक्षर में सम्यक्त्व नहीं है।" आत्म प्रशंसा के प्रति उनकी धारणा लोग महाराज की स्तुति करते हैं, प्रशंसा करते हैं। वे उनके इन वाक्यों को बांचे "हमारी मिट्टी की क्या प्रशंसा करते हो? हमारी कीमत क्या है ?". कोरा उपदेशक धोबी तुल्य है शरीर के प्रति अनात्मीयभाव होने से महाराज कहने लगे-“यह मकान दूसरे का है। जब मकान गिरने लगेगा तो दूसरे मकान में रहेंगे।" अपने स्वरूप को बिना जाने जो जगत में चिल्लाकर उपदेश दिया जाता है, उसके विषय में पूज्यश्री ने बड़े अनुभव की बात कही थी, “जब तुम्हारे पास कुछ नहीं है, तब जग को तुम क्या दोगे? भवभव में तुमने धोबी का काम किया। दूसरों के कपड़े धोते रहे और अपने को निर्मल बनाने की ओर तनिक भी विचार नहीं किया। अरे भाई ! पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy