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________________ आचार्य-पद १२४ अपनी आत्मा को उपदेश दो, नाना प्रकार की मिथ्या तरंगों को मन से हटाओ, फिर उपदेश दो। केवल जगत् को धोते बैठने से शुद्धि नहीं होगी। थोड़ा भी आत्मा का कल्याण कर लिया, तो वह बहुत है।" कल्याण-पथ आज भगवान का दर्शन यहां नहीं है, श्रुतकेवली नहीं हैं, तब आत्म कल्याण का क्या मार्ग होगा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए महाराज ने कहा- “भगवान की वाणी की शरण लो, उस वाणी में बड़ी शक्ति है। उसके अनुसार काम करो । जो इच्छा होगी, वह मिलेगी, यह हम खातरी से दृढ़तापूर्वक कहते हैं। मार्ग से चलो, तो मोक्ष सरल है।" मार्मिक आशंका कोई तत्त्वज्ञ कह सकता है,“महाराज! आपने इंद्रियों के सुख का त्याग किया और आप ही व्रतों का उपदेश दे स्वर्गादि के सुखों को प्राप्त कराते हैं। इस प्रकार आप अपनी वाणी से साक्षात् नहीं तो प्रकारान्तर से विषय सुखों से सम्बन्ध कराते हैं। इससे आपके व्रतों को दोष लगता होगा, क्योंकि आपने पाप का मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना रूप से त्याग किया है, अतः आपको व्रत का उपदेश नहीं देना चाहिए? महत्वपूर्ण समाधान ऐसे संदेह को दूर करते हुए आचार्यश्री बोले- “तुम्हें स्वर्ग में सुख मिले और तुम स्वर्ग में खूब विषय सुख भोगो इसलिए तुम्हें उपदेश नहीं देते हैं। हमारा उद्देश्य यह है कि व्रताचरण के द्वारा तुम देवगति को प्राप्त करके विदेह में जाकर केवली भगवान के दर्शन करो। वहां तुम्हें भवावलि का बोध होगा। यदि सम्यक्त्व नहीं होगा तो वह तुम्हें केवली के दर्शन/उपदेश से मिल जायगा। इस प्रकार व्रताचरण तुम्हें मोक्ष प्राप्ति का कारण होगा।" कितना सुन्दर और हृदयग्राही समाधान है यह । इस प्रकाश में उन भाइयों को भी सोचना चाहिए जो व्रताचरण को व्यर्थ की चीज समझते हुए स्वयं उसकी उपेक्षा करते हैं और दूसरे अज्ञ भाइयों को उस पथ से विमुख बनाते हैं। अनादि कुसंस्कारवश जीव आहार, भय, मैथुन और परिग्रह रूप संज्ञा चतुष्टय के अधीन हो आत्मपथ और संयम की ओर आने से डरता है। अन्य पर्यायों में संयम की अनुकूलता नहीं रहती है। संयम का सुवास युक्त अमृत पुष्प मनुष्यभव रूपी भूमि में ही होता है। अतएव संयम को भूल विषयों की ओर जाने का साक्षात् न सही, तो प्रकारान्तर से उपदेश देना कैसे मंगल मार्ग माना जाय ? बिना संसार के निकट हुए तथा काललब्धि आदि साधनों को प्राप्त किए सम्यक्त्व नहीं मिलता है। काललब्धि के अभाव में व्रताचरण द्वारा जीव दुर्गतियों में परिभ्रमण के संकट से बचकर शांतिपूर्वक मध्यवर्ती कालव्यतीत कर सकता है। पूज्यपाद समाधान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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