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________________ आचार्य-पद १२२ कैसे बन्द होगा?" पर पदार्थों से संबंध नस्खमेपर/छोड़नेपाअंतर्बल्प क्यों और कैसे होगा? उस आत्मध्यान में इंद्रिय जमित सुखनहीं है, दुख नहीं है। गम्भीर बात इस चर्चा में निमग्न होकर महाराज के श्रीमुख से निकलते हुए प्रत्येक शब्द अमृतरूप लगते थे, मानो उनके ऊपर अनुभव की मुद्रालगीो । अकस्मात उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े-“अरे! जब छः मास के अभ्यास से आत्मा का परिचय होता है, तब उसमें सारा जीवन लगा देने से वह क्यों नहीं होगा? म बाबार में भी ध्यान कर सकते हैं। आत्मध्यान में बाजार क्या करेगा?" महाराज ने कहा-“ध्यान करते समय किनमे मिनिटध्यान में बैठते हैं, यह भी ध्यान नहीं रहता है। उन्होंने यह भी कहा था कि ध्यासकले में आरम्भमें कठिनाई मालूम पड़ती है, पश्चात् वह अभ्यास से सरल हो जाता है।" __ आचार्यश्री की उपरोक्त वाणी बहुत रहस्यपूर्ण है, उससेमके सच्चे आत्मत्रद्धानी होने का निश्चय होता है। ऐसे ही स्त्वावधारी महाब्रवी यात्माएं लोकान्तिक देव होकर आगामी भव में मोक्ष जाते हैं। ध्यान में क्या होता है, इस संदेह का निवारण करते हुए अपनी अनुभवपूर्ण वाणी में महाराज ने कहा- “ध्याता ज्ञान से ज्ञामकोढूंढता है। ध्याताभावमन से बाहर आता है, पीछे वापस जाता है। आत्मा अपने स्वरूपको छोड़करवारकहाँ जायेगी? अभ्यास से सब काम सरल हो जाता है ? मार्ग में चलने से सफलता मिलती है। मार्ग छोड़कर चाहे प्राण भी दो, चाहे उपवास करो परमात्र की प्राप्ति नहीं होगी। कुछ उपवास में आत्मा नहीं है।" महाराज ने यह भी कहाचा-"क्लकी गिरती हुई धारा में भी मछली ऊपर चढ़ा करती है, इसी प्रकार ज्ञानी भी अपने स्वरूप में चढ़ता है।" उपवास के विषय में अनुभव मैंने पूछा-“महाराज! यदि उपवास में आत्मानहीं है, तो क्या व्रत उपवास व्यर्थ है। आप क्यों उपवासादि कठोर तप करते हैं?" .. महाराज ने कहा- “अल्प आहारयाउपवास से, प्रमादकाढेकर विचारशक्ति बढ़ती है।" इससे उपवासादि की उपयोगितासाटोजाती है। सप्रमाद कम हुआऔर विचार शक्ति की वृद्धि हुई, तब आत्मा अपनी ओरम्मुखमेकी सामग्री प्राप्त कर लेता है। आत्म शांति का राज मैंने कहा-“महाराज! एक बड़े आध्यात्मवादीसमावप्रसिद्ध विद्वान् से मैंने पूछा था कि आपकी आत्मा को बहुत शांति कालाब हुआ होगा, उन्होंने कहा था कि हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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