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________________ १२१ चारित्रावी बैठ गया। जहाज मध्यसमुद्र में चला गया। उस समय वह पोपट उड़कर बाहर जाना चाहे, तो कहां जायेगा? उसके ठहले का स्थल भी तो चाहिए, इसलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है। इसी प्रकारघर, परिवार आदि का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर जायेगा कहां, यह बताओ?" चिंतामुक्त शांत मन महाराज कहने लगे-“हमारा मन अन्का आत्रय न होने से अपने आप आत्मा की ओर आकर टिकता है। हमारे मन को बाहर विश्राम करने का स्थान ही नहीं है।" एक बार ध्यान के विषय में बवह्मचर्चा चलाई. तब महाराज बोले-“हमारे चित्त में गड़बड़ी तथा चिन्ता नहीं है। हमें मोवपाने की चिन्ता नहीं है। अनादि काल से संसार में रहे, तो जल्दी क्यों? क्षेचार भवों में चलेजावेंगे, उतावली किस बात की। हमें शास्त्र की भी चिन्ता नहीं है। उसे पढ़ना सुम्माकरी है इससे पढ़ते हैं, सुनते हैं। पढ़ना ही चाहिए, ऐसी बात नहीं है।"म्होंने कह मार्मिक बात भी कही थी-“मुख्य रहस्य जब समझ में आ गया, तबदस बार पढ़ने मेंयाएकबार पढ़ने में क्या बात है।" आत्म-ध्यान की स्थिति आत्मा के ध्यान के विषय में जब पून्यत्री से चर्चा चलाई, तब वे महामुनि बोले“आत्मध्यान में शरीर का भी पता नहीं चलता है, सब अन्य बाह्य बातों का क्या पता चलेगा?" उन्होंने कहा-“आत्मा के ध्यान में इंद्रियों का सुख नहीं है। वहां आत्मा का आनन्द है।" इंद्रियों के विषय वनित सुख के विषय में महाराज ने कहा-“वह तो पागल का सुख है।" कितनी महत्व की बात है यह, सुखकाक्तिमा सूक्ष्म विश्लेषण है। सचमुच में स्वरूप को भूलने वालापागलकीमोति फिसेवाली आत्मा, सुख शून्य बाह्य वस्तुओं में सुखखोजती है, वहांउसकासद्भावकहता है औरमानता है कि मैंने उनमें ही सुखपाया है। यह सुख यथार्थ में पागत काही सुख है। पालकी प्रवृत्ति और कल्पना में तर्क, युक्ति विचार का संपर्क नहीं होता है। वैसा उसे सूत्रबाये, वैसा वह मानता है। मिथ्यात्व के आधीन समस्त प्रानी ऐसे ही सुखके फेरे में फसे हुए हैं। __आचार्य महाराबक्झेतो-“मोह की चालतोड़ देने के बाद आत्मा भीतर आता है, बाहर जाता है। भीतरानेपाउसके हिंसामर्दियाका भी विकल्प नहीं रहता है। दूसरे जीवों के मरनेसे, यारखनसेमारीमात्माकासासंबंधहै?" यह कथन सूक्ष्म निश्चयनय की अपेक्षा है। उसीउक्त प्रकाशकत्रीकोतो"आत्म ध्यान में अंतर्जल्प भी नहीं होता है। शरीव्यतिरिक्त आत्मामेंतमहोती है। मोह का बंधन हटे बिना अंतर्जल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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