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________________ आचार्य-पद १२० में उद्धृत होती थी कि उसके समीप आगत व्यक्ति उनके प्रभाव में आए बिना नहीं रहता था। यही दिव्य प्रभाव तो सिंहादि क्रूर जीवों में शांत-भाव उत्पन्न कर दिया करता है। आज का युग पुद्गल के प्रभाव को समझने और उसे प्रकाशित करने के कार्य में लग गया है। उसे आत्मा का प्रभाव कैसे ज्ञात हो सकता है ? कोयले की खदान में काम करने वाले का मुख जैसे श्याम होता है, ऐसे ही पुद्गल की समाराधना के फलस्वरूप कालिमा की वृद्धि हो रही है व जहाँ कालिमा की वृद्धि हो रही है, वहाँ रत्नों का उज्ज्वल प्रकाश कहां से आ सकता है। यदि आत्मा की उज्ज्वल आराधना की जाय तो कितना कल्याण, आनन्द, शांति और विशुद्धता का लाभ हो सकता है, यह बात केवल आचार्य शांतिसागर महाराज के जीवन को देखकर ही जानी जा सकती है, अन्य किसी प्रकार से नहीं। धर्मयुग प्रवर्तक संत इस एक पवित्र आत्मा ने प्रहरी की भांति भव्यात्माओं को जगाना प्रारम्भ कर दिया, जिसके कारण पंचमकाल रूपी डाकुओं के शासन में भी भव्यजीव अपने रत्नत्रय की सम्हाल करते हुए मुक्तिपुरी की ओर बढ़ते हुए देखे जा रहे हैं। आचार्य महाराज इस युग में एक आश्चर्यप्रद विभूति प्रतीत होते थे। सब कहते हैं यह कलिकाल है, किन्तु महाराज जहाँ-जहाँ पहुंचते, वहीं-वहीं धार्मिकता की अभिवृद्धि देखकर ऐसा लगता था मानो चतुर्थ काल उस जगह छुपा हुआ था, जो उनके आते ही व्यक्त रूप में प्रगट हो गया। सब लोग यह कहते हैं कि आज का समय ऐसा है कि चंचल चित्त को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता है, किन्तु पूज्यश्री ने चित्त को ऐसा स्थिर किया कि उसमें चंचलता को स्थान ही नहीं है। स्थिर मन एक बार मैंने महाराज से पूछा था, “महाराज! आप निरन्तर शास्त्र स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते हैं, क्या इसका लक्ष्य मनरूपी बंदर को बांधकर रखना है, जिससे वह चंचलता न दिखावे।" महाराज बोले- “हमारा बंदर चंचल नहीं है।" मैंने कहा-“महाराज! मन की स्थिरता कैसे हो सकती है, वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है ?" महाराज ने कहा-“हमारे पास चंचलता के कारण नहीं हैं। जिनके पास परिग्रह की उपाधि रहती है, उनको चिंता होती है, उनके मन में चंचलता होती है। हमारे मन में चंचलता नहीं है। हमारा मन चंचल होकर कहाँ जायेगा?" इस बात के स्पष्टीकरण के हेतु महाराज ने एक उदाहरण दिया कि एक पोपट (तोता) जहाज के ध्वज के भाले पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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