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बीस
चारित्र चक्रवर्ती कि इसके अभाव में इस विषय से संबंधित इतिहास अधूरा सा प्रतीत होता है।। स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्तिजी का परामर्श तो यहाँ तक था कि संपादक, प्रबंध संपादक, संयोजक, प्रकाशक आदि अपने मंतव्यों को जो कि लेखक के मंतव्य से मेल खाता हो या नहीं खाता हो, को विशेषार्थ में, फुटनोट में या परिशिष्ट के रूप में दे सकते हैं, उन्हें इस प्रकार देने में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती। उन्हीं के इस परामर्शानुसार इस इतिहास को हम परिशिष्ट-१ शीर्षक से विभाजित अंतरे(कॉलम) में प्रतिज्ञा-२ शीर्षक से मय पंडित नेहरुजी के ३१.१.१९५० के ऐतिहासिक पत्र के स्वतंत्र रूप से दे रहे हैं।।
एक बार हम पुनः कह दें कि यद्यपि आज पंडितजी हमारे मध्य नहीं है, किंतु यदि पंडितजी आज होते, तो निश्चित ही आचार्य श्री से संबंधित इस इतिहास को हमें परिशिष्ट अंतरे में देने की आवश्यकता ही नहीं पडती, इसे वे जहाँ यह विषय है (प्रतिज्ञा-१), वहीं से आगे अथवा उसीमें प्रकरणानुसार युक्त करने को कहते॥१९५३ अथवा बाद के संस्करणों में जो छप गया वह अंतिम था, ऐसी मान्यता या धारणा पंडितजी की थी ही नहीं।
उपर्युक्त इतिहास को मुद्रित करवाते हुए एक समस्या यह भी रही कि इस इतिहास से संबंधित मूल फोटो हमें उपलब्ध नहीं हो पाये।
मूल फोटो उपलब्ध न हो पाने की स्थिति में हम असमंजस में थे कि करें तो क्या करें ? वैसे यह इतिहास सन्१९५१ के जैन बोधक के धर्मध्वजांक विशेषांक अपर नाम श्री आचार्य शांतिसागर विशेषांक में ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में मय इस इतिहास से संबंधित तस्वीरों के प्रकाशित हुआ था, किंतु उसमें प्रकाशित तस्वीरें पुनः उपयोग के योग्य नहीं रह गई थी अथवा उपयोग में आ भी सकती थी, तो मुंबई जाकर प्रोसेस आदि के माध्यम से हो आ सकती थी, अन्य किसी प्रकार से नहीं।। जब इस विषय में कई स्थानों व व्यक्तियों से संपर्क करने पर भी अनुकूल उत्तर नहीं मिला, तब हमने मुंबई जाने का मन बनाया। अभी मुंबई जाने का मन बनाया ही था कि श्रवणबेलगोला से आदरणीय भरत कालाजी का फोन आया व उन्होंने सूचना दी कि मुनिवर्य अमितसागर जी महार'ज(शिष्य-तृतीय पट्टाधीश आचार्य धर्मसागरजी महाराज) की प्रेरणा से इचलकरंजी(महा.) को समाज ने इस प्रति को जैसी यह तब छपी थी, ठीक वैसी ही, न कम न अधिक, यथावत् मुद्रित करवाई है व उसमें प्रकाशित तस्वीरें पुनः प्रकाशन हेतु उपयोग में आ सकती हैं। हमारी खुशी का ठीकाना हो न रहा !! अकलुज के बाबूभाई गांधी व ब्र. रामलाल के संयुक्त प्रयासों से वह प्रति उपलब्ध हो गई। यद्यपि ये तस्वीरें पूर्णतया निर्दोष नहीं थी, किंतु उपयोग में आने योग्य अवश्य थी। इन तस्वीरों में मुद्रण योग्य सफाई भले ही न हो, किन्तु इतिहास अवश्य था।
परिशिष्ट के इस अंतरे में मात्र इसी विषय को दिया है, अन्य नहीं, ऐसा नहीं, अपितु हरिजन टेंपल एन्ट्री एक्ट के तहत आचार्य श्री के पक्ष में दिये गये बम्बई हायकोर्ट के निर्णय
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