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इस संस्करण के संदर्भ में
उन्नीस में चारित्र लिखा है, उसमें, पंडित बंशीधर जी शास्त्री के १९३३ के संस्करण में व तत् काल के जैन बोधक आदि समस्त पत्र-पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में मुद्रित है ।। ____ क्या पाठकों को किंचित् भी शंका है कि जिस कद के महानुभावों के नाम शिलालेख के इस अंश में मुद्रित हैं, तत् संबंधि अंश को यदि हम पंडितजी के सम्मुख रखते, तो क्या इसअंश के प्रकाशन को लेकर उनकी प्रतिक्रिया नकारात्मक होती ? निश्चित ही नहीं।। यही सोच हमारी भी है। इसीलिये हमने उस अंश को अभी तो इस लेख में, किंतु कालांतर में शिलालेख के साथ मुद्रित करवाने का प्रयास करने का मानस बनाया है।।
यह प्रथम विषय हुआ, अब द्वितीय॥
१९५३ के ही संस्करण में दिगम्बरत्व शीर्षक के अन्तर्गत पृष्ठ ५३३ पर प्रधानमंत्रो पं. जवाहरलाल जी नेहरू द्वारा हरिजन टेम्पल एन्ट्री एक्ट पर भारत सरकार के दृष्टिकोण की सूचना देने वाले दिनांक ३१ जनवरी १९५० को लिखित व प्रधानमंत्री कार्यालय से प्रेषित एक महत्वपूर्ण व बहुमूल्य पत्रांश का उल्लेख पंडितजी द्वारा किया गया है :
आइये इस पत्राश का अवलोकन करें :
“यह स्पष्ट है कि बुद्ध धर्मी हिंदु नहीं हैं। जैनियों को हिंदु मानने का कोई कारण नहीं है। यह सत्य है कि जैन लोग कछ अंशों में हिंदुओं से निकट संबंधित हैं. तथा उनमें एक समान रीति रीवाज पाये जाते हैं, किंतु इस विषय में संदेह का तनिक भी स्थान नहीं है कि जैन लोग स्वतंत्र धार्मिक समाज के रूप में हैं तथा भारत का संविधान इस प्रकार की निश्चित स्थिति को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचाता॥"
पंडितजी ने इस महत्वपूर्ण व बहुमूल्य पत्रांश का उल्लेख तो किया, किन्तु यह पत्र किसे लिखा गया, क्यों लिखा गया व जिसे लिखा गया उसने कौन सा ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया था कि जिसके कारण प्रधानमंत्री कार्यालय इस पत्र को प्रेषित करने को बाध्य हो गया अथवा क्या यह व्यक्तिगत पत्र था या कि जैन समाज के नाम प्रेषित किया गया पत्र था अथवा कहीं यह स्वयं आचार्यश्री के ही मिशन का तो अंग नहीं था, आदि प्रश्नों में से एक प्रश्न को भी अपने लेख में स्थान नहीं दिया है। ___खोज करने पर इससे संबंधित अद्भुत इतिहास का हमें ज्ञान हुआ, जिसे कि हम मय ऐतिहासिक प्रमाणों के इसी संस्करण में आदरणीय दिवाकरजी द्वारा लिखे गये लेखों को समाप्ति के पश्चात् परिशिष्ट-१ शीर्षक से विभाजित अंतरे (कॉलम) के अन्तर्गत परमपूज्य १०८ आचार्य वर्धमानसागर जी, स्वस्ति श्री भट्टारक चारुकीर्ति जी, स्वयं महासभा अध्यक्ष एवं इस संस्करण के दानपति जिनका कि व जिनकी कि पूर्वपीढ़ी का बहुभाग आचार्यश्री के साथ गुजरा व जो कि इस इतिहास के स्वयं साक्षी थे ऐसे श्री कांतिलाल जो जवेरी के परामर्शानुसार प्रतिज्ञा-२ शीर्षक से दे रहे हैं। इन सभी का एक मत से निर्णय था
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