SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११५ चारित्र चक्रवर्ती सहनशील हो तथा सागर के समान मल दोषों को दूर करने वाले हों तथा जो सात प्रकार के भय से रहित हों, वे आचार्य हैं।"१ प्राकृत आचार्य भक्ति में लिखा है-आचार्य परमेष्ठी उत्तम क्षमा के द्वारा पृथ्वी सदृश हैं, निर्मल भाव की अपेक्षा स्वच्छ जल समान हैं। कर्मेन्धन के दहन करने से अग्नि रूप हैं, परिग्रह रहित होने से पवन तुल्य हैं। ___ जो गगन के समान निर्लेप हैं, सागर सदृश अक्षोम्य हैं, इस प्रकार गुणों की राशि मुनि श्रेष्ठ आचार्य परमेष्ठी के चरणों को शुद्ध हृदय से प्रणाम करता हूं।' वंशकुल परंपरा की शुद्धता होने पर भावों में उच्चता आती है, इसी कारण सोमदेव सूरि ने अपने यशस्तिलक में लिखा है “दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाः” (पृष्ठ ४०५)- मुनि दीक्षा के योग्य त्रैवर्णिक ही हैं। इसी कारण आचार्य की स्तुति में उनकी कुलीनता का उल्लेख करते हुए लिखा है : देस कुलजाइ सुद्धा विसुद्ध मण वयण काय संजुत्ता। तुम्हें पाय पयोरुह मिह मंगल मत्थु मे णिच्चं ॥ अर्थ : "जो देश से शुद्ध हैं, पितृ पक्ष तथा मातृ पक्ष से शुद्ध है, निर्मल मन, वचन, शरीर युक्त हैं, ऐसे हे आचार्य परमेष्ठी ! आपके चरणकमल मेरा निरन्तर कल्याण करें।" महाबंध के मंगल श्लोक में लिखा है, “जिन्होंने रत्नत्रय रूपी तलवार के प्रहार से मोह रूपी सेना के मस्तक को विदीर्ण कर दिया है तथा भव्य जीवों का परिपालन किया है, वे आचार्य महाराज प्रसन्न होवें।" ___ आचार्य परमेष्ठी का, वीतरागशासन होता है, जबकि राजाओं का सराग शासन होता है। आचार्य महाराज के शासन में रहने वाला गुरू-प्रसाद से स्वर्ग, मोक्ष की सामग्री को प्राप्त करता है किन्तु राजा के प्रसाद में ऐहिक कुछ सामग्री मिल जाती है, “राजा प्रसन्नं गज भूमि दानम्", राजा प्रसन्न होने पर हाथी, भूमि का दान देता है, किन्तु आचार्य प्रसन्न होते हैं तो वे शिष्यों को अपने समान बना लेते हैं। अभी समडोली में १. आचारांगधरोवा तात्कालिक-स्वसमय-परसमय पारगो वा मेरुरिव निश्चलः, क्षितिरिव सहिष्णुः, सागर इव बहिः क्षिप्तमलः सप्तभय विप्रमुक्त आचार्यः ॥(धवलाटीका भाग १ पृ. ४८, ४६) २. उत्तमखमाए पुढ़वी पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा। कम्मिंधण दहणादो अगणी वाऊ असंगादो॥ ३. गयणमिव णिकवलेवा अक्खोहा सायरुव्व मुणिवसहा। एरिस गुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो॥ ४. तिरयण-खग्ग णिहाए णुत्तारिय मोहसेण्ण सिरणिव हो। आइरियराउ पसियउ परिवालिय भवियजियलोओ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy