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आचार्य-पद समडोली में शांतिसागर महाराज ने जो श्रमण संघ का निर्माण किया था, उसके कारण चतुःसंघ समुदाय ने उन्हे आचार्य परमेष्ठी के रूप में पूजना प्रारंभ कर दिया था। आचार्य पद का स्वरूप
आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में आचार्य पद की बड़ी प्रतिष्ठा है। मूलाचार में लिखा है- “जो निग्रंथ मुनि ज्ञान, दर्शन, वीर्य, तप और चारित्र रूप पंच आचारों का निरतिचार पालन करता है, दूसरों को इन पंच आचारों में लगाता है तथा इनका उपदेश देता है, उसे आचार्य कहते है।"१ धवलाटीका में लिखा है, "जो पंचविधि आचार का पालन करते हैं, दूसरों से पालन कराते है उन्हें आचार्य कहते हैं।"२ __ आगम में लिखा है-“जिनकी बुद्धि जिनागमरूप जलधि के मध्य में स्नान द्वारा निर्मल हो गई है, जो शुद्धता पूर्वक छह आवश्यकों का पालन करते हैं, मेरु के समान अकंप हैं, वीर हैं, सिंह सदृश्य हैं, तथा श्रेष्ठ हैं, वे आचार्य कहलाते है।"३
"जो देश, कुल तथा जाति से शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, बाह्य तथा अंतरंग परिग्रह उन्मुक्त हैं, जो गगन के समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते है।'' __ "जो संग्रह तथा शिष्यों के दोष दंड द्वारा निग्रह करने में प्रवीण हैं, सूत्रों के अर्थ चिंतन में विशारद है, विश्रुत कीर्ति हैं, जो सारण अर्थात् आचरण करने में, वारण अर्थात् दोषों का निवारण करने में तथा व्रतों की रक्षा करने वाली क्रिया के साधन में निरन्तर रहते है उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए।"५ __ आचार्य वीरसेन स्वामी ने लिखा है-"जो आचारांग के धारक हों अथवा तत्कालीन जिनागम तथा अन्य शास्त्रों के पारंगत हों, मेरु के समान निश्चल हों, पृथ्वी के समान
१. आयारंपंचविहं चरदिचरावेदिजोणिरदिचारं।
उवदिसदि य आयारं एसो आयारयं णाम ।। ४२५, मूलाचार ।। २. पंचविधमाचारं चरन्ति, चारयन्तीत्याचार्याः ।। पृ. ४८, भाग १,घवलाटीका॥ ३. पवयण-जलहिज लोयरण्हायामल-बुद्धि-सुद्धछावासो।
मेरुव्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वज्जो ॥ ४. देसकुल जाइसुद्धो सोमंगो संगभंग उम्मुक्को।
गयणव्व निरुवलेवो आयरियो एरिसो होई।। ५. संगहण-णिग्गहण कुसलोसत्तत्थ विसारओ पहियकित्ती।
सारण-वारण-साहण-किरिमुज्जुत्तो हुआइरियो॥
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