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आचार्य-पद
११६ वीरसागरजी तथा नेमिसागरजी को निग्रन्थ दीक्षा देकर महाराज ने अपने समान बना ही लिया। इस प्रकार इन आचार्य परमेष्ठी के साथ संतुलन करने पर राजा का पद बहुत ही लघु ज्ञात होता है। इसी से राजा भी इन महाप्रभु के चरणों की रज के द्वारा अपने जीवन को धन्य मानता है। आचार्य पद और राजा के विषय में कुलीनता की समान रूप से मान्यता मानी गई है। नीतिवाक्यामृत ६६, पृ. २४३ में लिखा है :
स्वजातियोग्यसंस्कारहीनानां राज्ये प्रव्रज्यायां च नास्त्यधिकारः॥
अर्थ : स्वजाति के योग्य संस्कार हीनों को न राज्य का अधिकार रहता है, न दीक्षा का , ही अधिकार होता है। नीच व्यक्ति को अपात्रता के कारण इन दो पदों के अयोग्य कहा है।
आज लोकतंत्र के बल पर कोई कहे कि हम नीचों को ही सिर पर बैठा लेंगे, इसमें क्या दोष है ? इस शंका का समाधान सोमदेव सूरि नीतिवाक्यामृत ३०, पृ. २८३ में इस प्रकार कहते हैं :
चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाविकुर्वाणास्तिष्ठन्ति॥
अर्थ : जिस प्रकार उदर में स्थापित करने पर चना वात संबंधी विकृति को उत्पन्न . करता है, तद्वत् अत्यन्त स्नेह करने पर भी नीच अपने संस्कार के अनुसार विकार किए बिना नहीं रहता है। आचार्यश्री का शासन, आसक्ति शून्य है
यहाँ यह भी शंका हो सकती है कि जिस प्रकार राजा को प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता रहती है, उसी प्रकार आचार्य को चिन्ता रही तो उनका निग्रंथपना विपत्ति
१. महापुराण में निग्रंथ दीक्षा को वीर दीक्षा कहते हुए बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। बाहुबली के दीक्षा लेने के बाद भरतेश्वर के अन्य बन्धु चक्रवर्ती को प्रणाम नहीं करना चाहते थे, उन्होंने भगवान वृषभनाथ प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर इस प्रकार प्रार्थना की थी
परप्रणामविमुखीभयसंगविवर्जिताम्। वीरदीक्षां वयं धर्तु भवत्पार्श्वमुपागताः ॥ महापुराण ३४-१०६ ।।
भगवन् ! हम आपके समीप वीर दीक्षा धारण करने को आये हैं, क्योंकि वह अन्य लोगों को प्रणाम करने से रहित हैं, भय तथा संग अर्थात् परिग्रह रहित हैं।
दूसरों को प्रणाम करने में तुम्हें क्या आपत्ति है इसका उत्तर देते है - युष्मत्प्रणमनाभ्यासरस दुर्ललितंशिरः। ' नान्यप्रणमने देवर्तिबध्नाति जातु नः ।। महापुराण १०४॥
देव! आपको सदा प्रणाम करने के अभ्यास केरस की आदत युक्त हमारा मस्तकअबदूसरों को प्रणाम करने को तत्पर नहीं होता है। इस वीर दीक्षा को धारण कर वीरसागर महाराज का जीवन चरितार्थ हो गया। नेमिसागर महाराज ने भी इस दीक्षा को लेकर भगवान नेमिनाथ प्रभुकेपथ का अनुसरण किया। दोनों मुनिराज आजभी निर्दोषवृत्ति से अपने व्रतों का पालन करते हुए स्वपरहित में संलग्न है।
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