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________________ दिगम्बर दीक्षा १०६ के लिये निकले । एक श्रावक के गृह पर विधि मिल गई। भोजनशाला में पहुँच गए। सिद्ध भक्ति हो चुकी थी। अंजुलि बांधकर आहार लेने को तैयार हुए। उस समय महाराज उष्ण दूध और चावल का आहार लेते थे । उस श्रावक के यहाँ उबलता हुआ दूध रखा था। होनहार की बात है कि उसका साधारण विवेक भी उस समय नष्ट सा हो गया । उसने अपने हाथ न जल जाएँ, इस कारण कपड़े से दूध वाले बर्तन को पकड़ा और तुरन्त महाराज की अंजुलि में डाल दिया । वह यह नहीं सोच सका कि इससे मेरा हाथ जलता है, तब उसके स्पर्श से इन मुनिनाथ का क्या हाल होगा ? दूध के हाथ में गिरते ही उष्णता की असह्य पीड़ा के कारण वे मूर्छा के अधीन हो तत्काल भूतल पर गिर पड़े। सब लोग घबड़ा गए। उस समय नेमिसागर मुनि महाराज नेमण्णा नामक गृहस्थ के रूप में थे । वे यह सोचकर कि कहीं यह महाराज के जीवन का अंतिम क्षण न हो, उनके कानों में जोर-जोर से पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करने लगे। कुछ समय के पश्चात् मूर्छा दूर हुई। उस समय महाराज ने आँखें खोली, क्षण भर में सब बातों की स्मृति हो गई । उस दिन उनको आहार अंतरा हो गया किंतु भावों में शांति रही आई । क्रोध या क्षोभ का लेश भी उनमें नहीं उत्पन्न हुआ था। 1 कण्ठ पीड़ा कवलाना में महाराज का वर्षायोग व्यतीत हो रहा था । गले में विशेष रोग के कारण अन्न का ग्रास लेने में अपार कष्ट होता था। बड़े कष्ट से थोड़ा-थोड़ा आहार लेते थे । एक ग्रास जरा बड़ा हो गया, उसे मुँह में लेकर खा ही रहे थे कि वह गले में अटक गया और उस समय उनके मूर्छा सरीखे चिह्न चेहरे पर दिखाई पड़े। चतुर आहार दाता ने दूध अंजलि भर दी और उस दुग्ध से वह ग्रास उतर गया, नहीं तो वह दिन न जाने क्या अनिष्ट दिखाता। यह घटना हमारे समक्ष की थी । अद्भुत आत्मबल वहाँ एक घटना और हो गई थी। महाराज ने अन्न छोड़ रखा था। फलों का रस आदि हरी वस्तुओं को छोड़े लगभग १८ वर्ष हो गए थे। घी, नमक, शक्कर, छाछ आदि पदार्थों को त्यागे हुए भी बहुत समय हो गया था। उस समय चातुर्मास में धारणा- पारणा का क्रम चल रहा था । गले का रोग अलग त्रास दायक हो रहा था। एक उपवास के पश्चात् दूसरे पारणे के दिन अंतराय आ गया। तीसरा दिन उपवास का था। चौथे दिन अंतराय फिर आ गया, पाँचवा दिन उपवास का था। छठे दिन आहार ले पाये थे। ऐसे अंतराय की भीषण परम्परा दो-तीन अवसर पर आई, जिससे शरीर बहुत क्षीण हो गया। डग भर चलना भी कठिन हो गया था। इतने में खूब वर्षा हो गई। शीत का वेग भी बढ़ गया। शरीर तो दिगंबर था ही। दो-तीन बजे रात को जोर की खाँसी आई और उस समय उनकी भीषण स्थिति हो गई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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