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________________ १०८ चारित्र चक्रवर्ती तब होता है। ब्राह्मण-पुत्र बंध शास्त्रों में भी पारंगत था और कोई बात नहीं जानता था । पितृविहीन विप्र पुत्र की बड़ी दुर्दशा हो गई। घर का धन सब खा लिया। आगे प्रशस्त पथ नहीं दिखा, इससे उसने चोरी का आश्रय ग्रहण किया । राजा के खजाने में ही चोरी करने को घुसा। वहाँ जब उसने रत्न का हार चुराने को उठाया, उसे स्मरण आ गया कि रत्नों की चोरी से इस प्रकार का बंध होता है । इसलिए उसने उसे छोड़ दिया। इसी प्रकार स्वर्ण चाँदी आदि निर्मित वस्तुओं को लेते समय दोषों के भयवश उसने उनका त्याग कर दिया। जो-जो वस्तु उठाता, वही दोषप्रद दिखती। अतः वह परेशान हो गया । इतने में निराश लौटते हुए उसे एक जगह भूसे की विपुल राशि दिखी । उसको चुराने से कोई दोष होता है, यह पिता ने नहीं सिखाया था, अत: भोला विप्र-पुत्र भूसे का गट्ठा बांधकर साथ ले चला। पहरेदारों ने उसे पकड़ा। पुरोहित-पुत्र की बात होने से राजा ने उसे स्वयं बुलाकर पूछा, “तुमने भूसे की चोरी क्यों पसंद की ?" उसने उत्तर दिया, “राजन् ! मेरे पूज्य पिताजी ने मुझे जीवन में केवल बंध का शास्त्र पढ़ाया था। उससे मैं इतना जान सका कि किस वस्तु के चुराने से क्या फल होता है । आपके राजकोष की बहूमूल्य वस्तुओं के लेने की हिम्मत न हुई, क्योंकि उनके ग्रहण करने में बड़ा दोष होता है। एक भूसे को लेना ही दोषरहित ज्ञात हुआ, इससे उसे ले लिया। राजा ने पुरोहित पुत्र को असाधारण पाप - भीरु देख, उसे ऐसे पद पर नियुक्त कर दिया, जिससे उसको कष्ट नहीं रहा । " हुए पूज्यश्री ने कहा, "बंध का ज्ञान होते ही जीव पाप से बचता है। इससे कर्म की निर्जरा होती है। बंध का वर्णन पढ़ने से मोक्ष का ज्ञान भी होता है। अत: पहले बंध का ज्ञान होना आवश्यक है । " आचार्यश्री ने महाबंध के दूसरे भाग की हमारी भाषाटीका के कुछ अंश को सुनकर तत्काल कुछ मार्मिक शंकायें की, जिनका कि हमें तत्काल उत्तर देते नहीं बना। कुछ समय बाद पूर्वापर विचार कर हमने जो समाधान किया, उससे उनको संतोष हुआ। तब महाराज बोले कि यह खुलासा तुम्हें टीका में कर देना चाहिए, जिससे संदेह न रहे। मैंने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया और उसके अनुसार विषय का स्पष्टीकरण कर दिया। इस प्रकार उनके सम्पर्क में आने वाले को उनके असाधारण क्षयोपशम का तथा विशिष्ट स्मरण शक्ति का क्षण भर में ही निश्चय हो जाता था । इसलिये पूज्य मुनिश्री मिसागर महाराज ने जो गुरुदेव की स्मरण शक्ति को अद्भुत कहा, वह यथार्थ था। अंजुलि में उबलता दूध मुनिपद में प्राय: मौत के साथ झूला सा झूला जाता है। न जाने कब कौन सी घटना जीवन प्रदीप को बुझाने वाली बन जाए, कहा नहीं जा सकता ? एक बार महाराज चर्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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