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________________ दिगम्बर दीक्षा १०७ गुत्थियों को ये बड़ी सरलता से सुलझा देते थे। एक दिन मैंने देखा कि महाराज अर्थशास्त्र के सिद्धांत (Law of Diminishing Utility) हीयमान उपयोगिता के सिद्धांत का वर्णन अपने अनुभव के आधार पर कर रहे थे, तब मुझे ज्ञात हुआ कि तपश्चर्या के द्वारा इनके क्षयोपशम का असाधारण विकास हुआ है। सन् १९५१ भाद्रपद के पश्चात् पं. जगमोहनलालजी शास्त्री, कटनी, पं. मक्खनलालजी न्यायालंकार, मुरैना, पं. उल्फतरायजी, बम्बई तथा और भी बहुत से विद्वान् महाराज के पास बारामती में पधारे थे और चर्चा के समय महाराज की प्रतिभा का वैभव देखकर चकित होते थे । इतना असाधारण क्षयोपशम सतत श्रुत का अभ्यास तथा तपश्चर्या का सुपरिणाम था । अहंकार के पहाड़ पर बैठे हुए अपने को श्रेष्ठ विद्वान् मानने वाले भाई यदि इनके पास आते, तो उनको पता लगता कि इनका जिनागम का ज्ञान कितना सुलझा हुआ था और इनको उलझा हुआ समझने वाले कितनी गहरी भ्रांति में फँसे हुए थे । एक दिन महाराज कहते थे कि " हम प्रतिदिन कम से कम ४० या ५० पृष्ठों का स्वाध्याय करते हैं । " धवलादि सिद्धांत ग्रंथों का बहुत सुन्दर अभ्यास महाराज ने किया था । अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं को उत्पन्न करके उनका सुन्दर समाधान करते थे । महाबंध के दूसरे भाग की हिन्दी टीका ३ वर्ष हुए, तैयार कर ली थी। हमने सोचा पूज्य गुरुदेव को कुछ महत्व के अंश सुनाना उचित होगा। इससे उनका मंगलमय आशीर्वाद भी प्राप्त हो जाएगा तथा कई महत्व की बातें भी सुनने में आ जावेगी, जैसी कि प्रथम भाग के लिये प्राप्त हुई थी । पहले समयसार नहीं, पहले बंध की बात ज्ञातव्य है 'महाबंध' प्रथम भाग की टीका को कवलाना में पढ़कर महाराज ने कहा था कि सचमुच यह ग्रंथ महाधवल है। बंध का स्पष्टता पूर्वक प्रतिपादन करने वाला शास्त्र यथार्थ 1 महान् है । बंध का ज्ञान होने पर ही मोक्ष का बराबर ज्ञान होता है। पहले समयसार नहीं चाहिये, पहले महाबंध चाहिये। पहले सोचो हम क्यों दुःख में पड़े हैं? क्यों नीचे हैं ? ३६३ पाखंड मत वाले भी सुख चाहते हैं, किन्तु मिलता नहीं । हमें कर्म क्षय का मार्ग ढूँढ़ना है। भगवान ने मोक्ष जाने की सड़क बनाई है। चलोगे, तो मोक्ष मिलेगा, इसमें शंका क्या ? अपने भाव को स्पष्ट करने के लिये महाराज ने एक कथा सुनाई थी : एक राजपुरोहित की मृत्यु हो गई । उसने अपने पुत्र को अर्थकरी विद्या कुछ भी न बताई । केवल इतना शिक्षण दिया था कि अमुक कार्य करने से अमुक कर्म का बंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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