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________________ दिगम्बर दीक्षा १०१ महाराज के गुरुदेव की अपार तपस्या __ आचार्य महाराज के दीक्षागुरु श्री १०८ देवेन्द्रकीर्ति स्वामी के विषय में पायसागर जी ने एक महत्व की बात सुनाई थी, जिससे इनके गुरुदेव की अद्भुत तपश्चर्या पर प्रकाश पड़ता है। उन्होंने कहा था, “एक दिन की बात है कि देवेन्द्र कीर्ति स्वामी गोकाक नगर से कोन्नूर आ रहे थे। रास्ते में सूर्य अस्त हो गया। दिगंबर मुनि रात्रि में विचरण नहीं करते, इसलिये मार्ग में ही रह गए। उनके साथ एगप्पपंडित भी था। उन्होंने अपने आसपास चारों ओर एक रेखा खींच ली और वे तथा साथ का पंडित उस वृत्त के भीतर हो गये। सायंकालीन सामायिक होने के उपरांत एक भीषण व्याघ्र वहाँ आया व रेखांकित क्षेत्र के बाहर उसने भीषण गर्जना-तर्जना की और अपना विकराल रौद्र रूप दिखाया, किन्तु उन निर्भीक ऋषिराज पर उसका कोई असर नहीं हुआ। कुछ समय के बाद वह व्याघ्र वहाँ से चला गया। इस घटना का समर्थन उक्त पंडित के नाती पंडित श्रीकांत ने भी किया था और कहा था कि मेरी माता भी यही बात बताती थी।" आचार्यश्री की स्थिरता, साहस, निर्भीकता, आत्मनिमग्नता आदि श्रेष्ठ गुणों को देखकर उनके समीप में आने वाले को ऐसा लगता था कि यथार्थ में इनके पास चतुर्थ काल ही है। इनकी श्रद्धा तथा प्रवृत्ति चतुर्थ कालीन मुनियों सदृश है। इतना ही सादृश्य नहीं था,बल्कि जहाँ वे पधारते थे, वहाँ अनवरत धर्म का निर्झर बहता था, उसे देखकर कौन कहेगा कि वहाँ पाप-बहुलपंचम काल है? ___इनके जीवन की अल्प सामग्री प्राप्त होने पर तो आज के लोगों के रोमांच हो आते हैं। यदि आज के आत्मकथा लिखने वाले लेखकों के समान इनके द्वारा बताई गई जीवन गाथा लिखी जा सकती, तो संसार इनके व्यक्तित्व को सजीव विश्व का श्रेष्ठ आश्चर्य अनुभव करता। किन्तु इनकी उत्कृष्ट आत्मसाधना इस कीर्ति के जाल को आत्मविकास के लिये बड़ा भारी बाधक अनुभव करती थी। यही तो इनकी लोकोत्तरता रही है। रहस्य काव्य के समान स्वजीवन प्रकट न करना, इनके जीवन की महत्ता को जानकारों के आगे व्यक्त कर देता है। अजानकारों के लिये भी अपूर्व सामग्री जीवों के पुण्य से कभी-कभी कुछ प्राप्त हो गई थी। यहाँ सर्प की एक और भीषण घटना लिखना उचित जान पड़ता है - एक दिन फलटण में महाराज सानंद आत्म-ध्यान करके बैठे थे। उस दिन उनका १. देवेन्द्रकीर्तिजी १०५ वर्ष तकजीवित रहे । ये धारणा-पारणाअर्थात् एक उपवास तथा एक आहार करतेथे। उनके अन्त तकदाँत नहीं टूटे थे। उन्होंने १६ वर्ष की अवस्था में मुनिपद धारण किया था। वे बाल ब्रह्मचारीथे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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