________________
१००
चारित्र चक्रवर्ती मैंने कहा, “महाराज! अनुग्रहीत कीजिए।"
उन्होंने कहा, “कोल्हापुर में नीमसिर ग्राम में एक पैंतीस वर्ष का युवक रहता था। उसे अणप्पा दाढ़ीवाले के नाम से लोग जानते थे। वह शास्त्र चर्चा में प्रवीण था। अकस्मात् वह गूंगा बन गया। वर्षभर पर्यंत गूंगेपन के कारण वह बहुत दु:खी रहा। लोगों के समक्ष जाने में उसे लज्जा का अनुभव होता था। उसका आचार्य शांतिसागर महाराज से विशेष परिचय था। उसे लोग जबरदस्ती आचार्यश्री के पास ले गये।
आचार्य महाराज ने कहा, “बोलो-बोलो ! तुम बोलते क्यों नहीं हो?" फिर उन्होंने कहा, “णमो अरिहंताणं पढ़ो।"
बस, णमो अरिहंताणं पढ़ते ही उसका गूंगापन चला गया और वह पूर्ववत् बोलने लगा। दर्शकमंण्डली चकित हो गई।
चार दिन के बाद वह अपने घर लौट आया। वहाँ पहुँचते ही वह फिर से गूंगा बन गया। मैं उसके पास पहुँचा। सारी कथा सुनकर मैंने कहा, "वहाँ एक वर्ष क्यों नहीं रहा? जब तुम्हें आराम पहुँचा था, तो इतने जल्दी भाग आने की भूल क्यों की?" वह पुन: आचार्यश्री के चरणों में पहुँचा। उन तपोमूर्ति साधुराज के प्रभाव से वह पुन: बोलने लगा। वहाँ वह १५ या २० दिन और रहा। इसके बाद वह पुन: गूंगा न हुआ। वह रोग मुक्त हो गया।
जब पायसागर महाराज ने मुझे यह बात सुनाई, तब मुझे ऐसा लगा कि नीमसिर गांव के भौतिक गूंगे को आचार्यश्री ने वाणी दी थी, किन्तु इन पायसागरजी के रूप में आध्यात्मिक गूंगे को उन्होंने मंगलमय वाणी की शक्ति प्रदान की, जो आत्मा के विषय में मूकत्व धारण करने वाले जगत को अध्यात्म की रसवती बोली बोलना सिखाते हैं। उदंड व्यवहार में भी पूर्ण शांति . पायसागर महाराज ने आचार्यश्री की पूर्ण शांति पर प्रकाश डालते हुए एक घटना सुनाई थी-“एक कठोर वाणी वाला लघु श्रेणी का शिष्य गुरुदेव के समीप पहुँचा और उसने अहंकार वश आचार्यश्री के पवित्र ज्ञान को चुनौती देते हुए कहा, “आपने अभी शास्त्रों का बराबर परिशीलन नहीं किया।"
पूज्य गुरुराज के प्रति प्रयुक्त अभद्र वाणी मुझे अयोग्य लगी। मैंने उनसे भद्र शैली में भाषा-व्यवहार करने की प्रेरणा की। ___ मुझसे आचार्य महाराज ने कहा, “पायसागर ! इसका प्रकृति-पिंड इसी प्रकार का है। इसमें बुराई की कोई बात नहीं है। स्वभाव की कोई दवाई नहीं है, इसलिये ऐसों पर रोष नहीं करना चाहिए।" अद्भुत शान्ति के निकेतन थे वे।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org