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________________ १०२ चारित्र चक्रवर्ती उपवास था। उनके मुखमंडल पर अद्भुत तेज था। असाधारण शांति थी। उनको एकान्त में देख मुझे उनके चरणों के पास में पहुंचने का सौभाग्य मिला। मैंने कहा, “महाराज! लगभग सात-आठ सौ मील की दूरी से आपके चरणों के पास कुछ निधि पाने की लालसा से ही मैं आता हूँ। मुझे और कोई निधि नहीं चाहिये। आपके चरण प्रसाद से सर्व प्रकार से अनुकुल साधन समुपलब्ध हैं। मुझे आपके जीवन की कोई अमूल्य अनुभव की बात चाहिए। उससे मुझे बड़ा लाभ होता है।" उन दिनों मैं श्री शांतिनाथ गुरुकुल रामटेक का संचालक था। उसके लिये सभी व्यवस्था का भार मुझ पर था। धनसंचय का कठिन काम भी करना पड़ता था। मैंने कहा, “महाराज आपके पास का अनुभव का माल मुफ्त में ले जाकर लोगों को सुनाता हूँ। तो मुझे संस्था के लिये हजारों रुपये मिलते देर नहीं लगती। आपके पास से प्राप्त माल धार्मिकों के बाजार में मैं इतनी बड़ी कीमत में देता हूँ। हाँ, यह अवश्य है कि आमदनी धर्मकार्यार्थ होती है।" ऐसी कुछ चर्चा से गुरुदेव की दृष्टि में करुणा का भाव आ गया। स्वाति नक्षत्र देखा, तो सीप ने मुख खोल दिया, उसे मुक्ताफल मिल गया। इसी प्रकार इस सुयोग को देख मैंने कहा, “महाराज सर्प की बाधा का अनुभव बताईये।" महाराज ने कहा, "इसमें क्या है। यह व्यर्थ की बात है। इसमें कुछ सार नहीं है। क्या तुम हमारी कीर्ति फैलाना चाहते हो ? हमें अपना रंच मात्र भी नाम नहीं चाहिये।" मैंने पुन: विनयपूर्वक निवेदन किया, “महाराज! आपकी दृष्टि आपके पद के अनुरुप है। मुझे आपके कुछ अनुभव चाहिये। अवश्य दया कीजिए।" प्रार्थना काम कर गई। हृदय से की गई प्रार्थना थी। महाराज सहृदयता की मूर्ति थे। उन्होंने करुणा कर अपने हृदय के द्वार खोल दिये और कहने लगे। सर्पराज का मुख के समक्ष फन करके खड़ा रहना “एक दिन हम जंगल में स्थित एक गुफा में ध्यान कर रहे थे कि इतने में एक सातआठ हाथ लम्बा खूब मोटा लट्ठ सरीखा सर्प आया। उसके शरीर पर बाल थे। वह आया और हमारे मुँह के सामने फन फैलाकर खड़ा हो गया। उसके क्षेत्र ताम्र लाल रंग के थे। वह हमारे पर दृष्टि डालता था और अपनी जीभ निकालकर लपलप करता था। उसके मुख से अग्नि के कण निकलते थे। वह बड़ी देर तक हमारे नेत्रों के समाने खड़ा होकर हमारी और देखता था। हम भी उसकी ओर देखते थे।" अमृत और विष की भेंट मैंने पूछा, “महाराज! ऐसी स्थिति में भी आपको घबड़ाहट नहीं हुई ?" महाराज ने कहा, "हमें भय कभी होता ही नहीं। हम उसको देखते रहे, वह हमें देखता रहा। एक दूसरे को देख रहे थे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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