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________________ ८८ चारित्र चक्रवर्ती शुद्ध है, यहाँ भोजन को पधारिये यह कह दिया, अब यदि मैं तत्काल योग्य व्यवस्था करने में चूकता हूँ, तो महाराज यहाँ से चले जावेंगे व लोगों में मेरी निंदा भी होगी । ऐसे विविध विचारों के जाल में जकड़े हुए उसके मन में एक युक्ति सूझी। उसके घर से लगा हुआ जो श्रावक का घर था, वहाँ आहार के योग्य शुद्ध सामग्री तैयार थी, अत: उसने बड़ी सफाई से सामान अपने घर में लाया। महाराज जी को इस बात का जरा सा भी पता नहीं लगा। अन्यथा वे वहाँ ठहरते क्यों ? होनहार की बात है कि उस गृहस्थ की होशियारी या चालाकी से मुनिराज का आहार वहाँ हो गया। भयंकर प्रायश्चित्-ग्रहण आहार पूर्ण होने के पश्चात् महाराज को ज्ञात हुआ कि आज का आहार ग्रहण नहीं करना था। दूसरे के घर से मांगा गया भोजन आहार के काम में लाया गया था। इससे उनके चित्त में अनेक विचार उत्पन्न होने लगे। ऐसी स्थिति में मुनियों के पास जो सबसे बड़ा हथियार प्रायश्चित्त का रहता है, उसका उन्होंने अपने ऊपर प्रयोग करने का निश्चय किया। जब भी कोई बुराई होती थी. तो उसका कारण बाहर न खोज कर वे अपने भीतर देखा करते थे। जिस प्रकार सिंह मारने का साधन बनने वाली लाठी आदि की परवाह न कर, प्रहार करने वाले पर चोट करता है, उसी प्रकार ये महामुनि भी सीधी चोट की नीति का पालन करते हैं। आहार में दोष का कारण मेरे कर्मों का विशेष उदय है, अन्यथा सदोष आहार क्यों मिलता सदोष आहार को छोड़ देना मेरा कर्तव्य था। किन्तु ज्ञान न होने से मैं ऐसा न कर सका। इसमें भी मेरी अज्ञानता का दोष है। ऐसी ही विविध दृष्टियों का विचार कर, उन्होंने उसी दिन मध्याह्न में सूर्य की प्रचण्ड किरणों से संतप्त शिला पर जाकर ध्यान करना प्रारंभ कर दिया। उसी समय उष्णता की भीषण स्थिति ठीक ऐसी ही थी: सूखहि सरोवर जल भरे, सूखर्हि तरंगिनि तोय । वाटहिं बटोही ना चलें, जहँ घाम गरमी होय॥ तिहकाल मुनिवर तपत पर्हि, गिरि शिखर ठाड़े धीर। ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर । जो व्यक्ति नसलापुर में थे, वे इस पद्य को ते साधु मेरे उर बसो के स्थान में ये साधु मेरे उर बसो पढ़ सकते थे। उस दिन की ग्रीष्म का भीष्म परिषह देखकर लोग घबड़ा गये थे, किन्तु महाराज तो महापुरुष ही ठहरे। उनकी स्थिरता अद्भुत थी। ऐसे ही ग्रीष्म परिषह विजेताओं का चित्रण भैया भगवतीदास ने इस पद में किया है : ग्रीषम की ऋतु महि, जल थल सूख जहिं। परत प्रचंड धूप, आगि सी बरत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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