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________________ दिगम्बर दीक्षा ८७ जाते थे। मार्ग में एक विप्रराज का गृह पड़ता था। इनका दिगंबर रूप देखते हुए एक दिन उसका दिमाग कुछ गरम हो गया। उसने आकर दुष्ट की भाषा में इनसे अपने घर के सामने से जाने की आपत्ति की। उसके हृदय को पीड़ा देने में क्या लाभ, यह सोचकर इन्होंने आने-जाने का मार्ग बदल दिया। लगभग दो सप्ताह के बाद उस ब्राह्मण के चित्त में इनकी शांति ने असाधारण परिवर्तन किया। उसे अपनी मूर्खता और दुष्टता पर बड़ा दुःख हुआ। उसने इनके पास आकर अपनी भूल के लिये क्षमा मांगी और प्रार्थना की कि महाराज पुन: उसी मार्ग से गमनागमन किया करें, मुझे कोई भी आपत्ति नहीं है। ___ महाराज के मन में कषाय भाव तो था नहीं। यहाँ हृदय स्फटिक तुल्य निर्मल था, अतः विप्रराज की विनय पर ध्यान दे, इन्होंने उसी मार्ग से पुनः आना जाना प्रारंभ कर दिया। मुनि जीवन में दुष्टजीवकृत उपद्रव सदा ही आया करते हैं। यही कारण था कि निर्ग्रन्थ दीक्षा देने के पूर्व गुरु ने पहले ही सचेत किया था कि किस प्रकार का उपद्रव आया करते हैं, जिनको जीतने के लिये आत्मा को पूर्णतया कषाय विमुक्त बनाना पड़ता है। नसलापुर चातुर्मास कोगनोली में चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् विहार करते हुए इनका शुभागमन वर्षा के समीप नसलापुर में हुआ, अत: उन्होंने वहाँ चातुर्मास व्यतीत किया। अब इनकी कीर्ति धीरे-धीरे सर्वत्र फैल रही थी। अत: इनके दर्शन कर जीवन सफल करने वाले स्त्री-पुरुषों की संख्या बढ़ने लगी। __ इनकी गुण गरिमा का वर्णन सुनकर सोलापुर प्रांत के कुछ लोगों ने नसलापुर में आकर इनके दर्शन किये। इस दर्शन से इनकी आत्मा आनंद विभोर हुई। इन्होंने वापिस आकर महाराज की महिमा का वर्णन किया, तो सबके मन में यही भाव होते थे कि कब इन रत्नत्रयमूर्ति मुनिराज का दर्शन कर जन्म कृतार्थ करें। विचित्र घटना एवं भयंकर प्रायश्चित्त ग्रहण निर्ग्रन्थ रूप में दूसरा चातुर्मास नसलापुर में व्यतीत कर विहार करते हुए महाराज का ऐनापुर पधारना हुआ। यहाँ एक विशेष घटना हो गई। शास्त्र में मुनि दान की पद्धति इसी प्रकार कही गई है कि गृहस्थ अपने घर में जो शुद्ध आहर बनाते हैं, उसे ही वह महाव्रती मुनिराज को आहर के हेतु अर्पण करें। दूसरे के घर की सामग्री लाकर कोई दे, तो ऐसा आहार मुनियों के योग्य नहीं है। नसलापुर में महाराज आहार ग्रहण को निकले। एक गृहस्थ ने अपने यहाँ भोजन की बिना किसी प्रकार की तैयारी के सहसा महाराज से आहार ग्रहण करने की प्रार्थना की और निमित्त की बात है कि उसी दिन पड़गाहने की विधि भी मिल गई, इससे महाराज वहाँ ठहर गए। अब उस बंधु को अपनी भूल याद आयी कि मैंने यह क्या काम किया। घर में आहार बना नहीं है और मैंने अन्न जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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