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दिगम्बर दीक्षा दावा कीसी ज्वाल माल, बहत बयार अति। लागति लपट कोऊ, धीर न धरत है। धरती तपत मानों, तवा सी तपाय राखी। बड़वा अनल सम, शैल जो जरत है। ताके श्रृंगशिला पर, जोर जुग पाँव धर ।
करत तपस्या मुनि, करम हरत है। कौन सोचेगा, कि पंचम काल में असंप्राप्तसृपटिका संहनन धारक साधु चतुर्थ कालीन मुनियों के समान ऐसा घोर तप करेगा? उष्णता के कष्ट का अनुमान करने के लिये हम एक सरल उदाहरण देना उचित समझते हैं : उष्ण परिषह जय
जब शिखरजी या राजगिरी की पंचपहाड़ी की वंदना करते समय मध्याह्न हो जाती है और पत्थर तथारेत गरम होने लगती है, तब यात्रा करने वाले जानते हैं कि चलने में कैसा कष्ट होता है। ऐसी परिस्थिति में नग्न शरीर युक्त पाषाण पर भीषण उष्णता के समय बैठने पर महाराज के शरीर को कितनी शारीरिक व्यथा हुई होगी, यह विचारक व्यक्ति सहज ही अनुमान कर सकता है। उस समय तो आसपास की पाषाण-राशि भी उष्ण हो आग उगलती सी प्रतीत होती थी। किन्तु धन्य है महाराज की स्थिरता तथा इन्द्रियजय, कि शांतभाव से उस कष्ट को सहन कर, उस सदोष आहार के ग्रहण-जनित दोष की शुद्धि की। ऐसी अपूर्व तपस्या और लोकोत्तर साधना न होती, तो क्यों संसार के बड़ेबड़े लोग उनके चरणों को अपने मस्तक में लगा, कृतार्थता का अनुभव करते। इस उष्ण परिषह को देखकर लोगों ने सोचा होगा कि यथार्थ में ये भीम के आत्मज हैं और इन्होंने अपने पिता से कर्मों के समक्ष भीम-वृत्ति धारण करने का गुण प्राप्त किया था। गुरु के द्वारा प्रदत्त शांतिसागर नाम के अनुसार ये उष्णता के समय ऐसे शांत रहे, मानो साक्षात् सागर में ही निमग्न हों, किन्तु यह सागर क्षारगुण युक्त जल से भरा नहीं था, वह शांति की सीमातीत चैतन्य राशि से परिपूर्ण था।
उस उष्ण परिषह का परिणाम शरीर के लिये बड़ा व्यथा जनक हो गया, किन्तु उन्होंने समभाव से वह कष्ट सहन किया। ८ दिन के लिये उन्होंने दूध के सिवाय सर्व प्रकार का आहार छोड़ दिया था।
इस घटना से असाधारण तपश्चर्या के सिवाय महाराज की आगमानुकूल प्रवृत्ति पर प्रकाश पड़ता है तथा यह स्पष्ट होता है कि वे परमागम की आज्ञा के अनुसार आचरण करने में सतर्क और सावधान रहते थे। जो महाराज के निकट सम्पर्क में आये हैं, वे जानते हैं कि पूज्यश्री आगम के वचनों का प्राणों से भी अधिक मूल्य और आदर करते थे।
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