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चारित्र चक्रवर्ती अनेक लोग चरणानुयोग तथा जैन परम्परा से अल्पतम परिचय रखते हुये भी, प्रथमानुयोग अथवा द्रव्यानुयोग के ज्ञान के बल पर संयमी जीवन वाले आचार्य के शिष्य बनने के स्थान पर गुरु का कार्य करना चाहते हैं। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि निर्दोष चारित्र महान् आत्मा के पवित्र जीवन पर दोष लगाने वालों की कर्मों के न्यायालय में किस प्रकार दुर्गति होती है? इसलिये भव्यात्माओं का कर्तव्य है कि मिथ्याप्रवृत्ति वालों से नेतृत्व न ग्रहण करें । इसी में स्व और पर का कल्याण है। शास्त्र में जैनधर्म को लांछित करके गौरवहीन बनाने का दोष कपटवृत्ति वाले तपस्वियों और चारित्रहीन विद्वानों के ऊपर रखा गया है। इसलिये नौका चलाने की दोनों पतवारों के समान धर्म की नौका को खेने वाले साधुओं को विशुद्ध चरित्र वाला बनना तथा विद्वानों को पुण्याचरण वाला होना आवश्यक है। भगवान नेमिनाथ की निर्वाण भूमि में
समडोली के श्रावकों के साथ महाराज, नेमिनाथ भगवान के पदरज से पुनीत गिरनार पर्वत पर पहुंचे। उन्होंने जगतवंद्य नेमिनाथ प्रभु के चरण चिह्नों को प्रणाम किया और सोचा कि इन तीर्थंकर के चरणों के चिह्न रूप अपने जीवन में कुछ स्मृति-सामग्री ले जाना चाहिये। वहाँ के पवित्र वातावरण ने इनके अंत:करण को विशेष प्रकाश दिया। भगवान नेमिनाथ के निर्वाण-स्थान की स्थायी स्मृतिरूप ऐलक दीक्षा लेने का इन्होंने विचार किया। महापुरुष जो विचारते हैं, तद्नुसार आचरण करते हैं, इसलिये अब ये ऐलक बन गये। इनकी आत्मा में विशुद्धता उत्पन्न हुई। ऐलक दीक्षा
ऐलक बनने पर इनकी आत्मा को बड़ी स्फूर्ति मिली। भगवान नेमिनाथ जैसे रागरंग के चौराहे से मुख मोड़वीतरागता के सिन्धु में निमग्न होने वाले तीर्थंकर की तपोभूमि ने न मालूम कितनी सोती हुई आत्माओं को आत्मप्रकाश प्रदान किया है। उनके ही कारण गिरनार पर्वत ही नहीं, सारा सौराष्ट्र देश सुराष्ट्र रूप में आध्यात्मिक जगत के द्वारा वंदनीय बन गया। ___ महाव्रती बनने के लिये आत्मा के पोषण की पर्याप्त सामग्री उनके पास इकट्ठी हो रही थी। नेमिप्रभु के चरणों ने उनके आध्यात्मिक धन को बढ़ाकर उन्हें चारित्र निधि का बड़ा धनी बना दिया। आहार के हेतु एक ही बार जावे
एक दिन गिरनार जी की वंदना कर वे लौटे और प्रात:काल पर्वत पर ही व्यतीत होने के कारण चर्या के लिये सायंकाल के समय निकले, कारण शास्त्र की ऐसी आज्ञा है कि
१. पंडितैर्धष्ट - चारित्रैः वठरैश्च तपोधनैः ।
शासनं जिनचंद्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ।।
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