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________________ ७६ चारित्र चक्रवर्ती सम्यक्त्व मिथ्या मंत्रों से अपनी श्रद्धा को मलिन नहीं करेगा बारामती में महाराज से एक प्रश्न पूछा गया था, “सम्यक्त्वी रोग निवारण के लिये मिथ्या मंत्रों द्वारा लाभ लेने का प्रयत्न करेगा या नहीं ?" पास में बैठे हुये एक विद्वान् बोल उठे, “ जैसे सम्यक्त्वी औषधि लेता है, उसी प्रकार औषधि के रूप में मिथ्या मंत्र से लाभ लेगा । " इस पर महाराज ने कहा, "औषधि लेने में बाधा नहीं है, कारण कि औषधि में न सम्यक्त्व है, न मिथ्यात्व, किन्तु मिथ्यादेवों की आराधनायुक्त मंत्रों से स्वार्थ सिद्धि करने पर उसकी श्रद्धा में मलिनता आयेगी । " वास्तव में कुदेव आदि सम्यक्त्व के अनायतन हैं, इसलिये उनसे बचना सच्चे तत्त्वज्ञ कर्तव्य है । आचार्य महाराज ने मिथ्यात्व का त्याग कराकर, जो लोकहित में उद्योग किया है, उसकी तुलना में बड़े से बड़ा लौकिक उद्धार कार्य नगण्य है। सच्चा कल्याण सम्यक्त्व के प्रचार में है, जिससे भव-भव के दुःख दूर होते हैं। जिसने आत्मा में लगे हुए मिथ्यात्व को दूर करा दिया, उसने जीव का अनन्त कल्याण कर दिया। शरीर के क्षय रोग की चिकित्सा लोक में वैद्यलोग करते हैं, किन्तु आत्मा में लगे हुए मिथ्यात्व रूपी क्षय के निवारण का सामर्थ्य देवाधिदेव जिन भगवान की वाणी तथा उसके अनुसार आचरण करने में है । कोई भी रोगी औषधि की श्रद्धा मात्र से रोगमुक्त नहीं होता । उसे औषधि के सेवन करने के साथ युक्त आहार-विहार करना आवश्यक है। इसी प्रकार जो भगवान की वाणी में श्रद्धा मात्र बताकर ठीक उसके विपरीत आचरण करते हुए अपनी कालिमा पूर्ण प्रवृत्तियों को कल्याणकारी सोचते हैं, उनके नेत्रों से मिथ्यात्व रूपी पीलिया रोग अभी दूर होना बाकी है, ऐसा मानना योग्य जँचता है। आज लोग जिनेन्द्र के शासन में जन्म लेते हुए भी प्राय: मिथ्यात्वी बन रहे हैं और उसे सर्वधर्म समभाव का मधुर नाम देकर आत्म वंचना करते हैं । काँच और कंचन, काग और कोकिल में एकान्त समता का भाव रखनेवाला कैसे तत्त्वज्ञ माना जायेगा ? तत्त्वज्ञानी न्याय दृष्टि को अपनाता है । विश्व के उद्धारकर्ता वीतरागरसपूर्ण स्याद्वाद शासन के समान एकान्तवाद की नींव पर स्थित सरागता के आराधक सिद्धांतों में तत्त्वज्ञ कैसे एकता स्वीकार कर सकता है ? यह परमार्थ की बात है। इसमें लोक व्यवहार की लुभावनी नीति के अनुसार समझौता करने वाला जीव का सम्यक्त्व अस्तंगत हो जाता है। यह सम्यक्त्व का अद्भुत सामर्थ्य है कि इसके प्रसाद से अनंत संकट क्षण में नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए महाज्ञानी मुनि समंतभद्र स्वामी ने लिखा है कि इस जीव का त्रिकाल और त्रिलोक में सम्यक्त्व सदृश कोई हितकारी नहीं है और मिथ्यात्व 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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