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________________ ७५ संयम-पथ गंधोदक से सर्पविष निवारण इस प्रकार और लोग भी जिनेन्द्र के मंत्र की अपूर्वता बताते हैं। बरार प्रान्त के अमरावती जिले में हिवरखेड़ा ग्राम है। वहाँ के जैन मंदिर के एक कर्मचारी को भयंकर सर्पराज ने काट दिया। उस मंदिर का माली जिनभगवान की सेवा करता था। उसके मन में पारसनाथ भगवान के प्रति गहरी श्रद्धा थी। उसकी प्रार्थना पर जैन बंधुओं ने भगवान पार्श्वनाथ का अभिषेक करना आरंभ किया। सभी जैन बंधु प्रभु की पूजा में तन्मय हो रहे थे। उस समय विष का वेग चढ़ता जा रहा था। मंदिर के पास अन्य वर्ग वालों की भीड़ इकट्ठी हो गयी और वे कहने लगे कि ये जैन लोग आज इस गरीब को मार डाल रहे हैं। व्यर्थ में भगवान की पूजा का ढोंग रच रहे हैं। इतने में विष का गहरा असर होने से उसे चक्कर आया जिसे देख ऐसा लगा कि अब यह नहीं बचेगा। कुछ क्षण बाद दूसरा चक्कर आया। उस समय अभिषेक के गंधोदक उसके शरीर में लगाया, उसके कुछ क्षण पूर्व तीसरा चक्कर आ रहा था, जिसे लोग मृत्यु का चक्कर ही समझ रहे थे। इतने में जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक का गंधोदक का शरीर से स्पर्श होते ही तत्काल उसका विष उतर गया। अन्य धर्म वाले बहुत प्रभावित हुये। आज भी लोग जिन भगवान की उस महिमा का बड़े आदर भाव से स्मरण करते हैं। वास्तव में जिनेन्द्र भगवान की श्रद्धा हृदय में धारण करने से संसार में कोई विपत्ति नहीं रह सकती। सन् १९८० के लगभग की बात है। जबलपुर के समीपवर्ती तिवरी ग्राम में आचार्य १०८ सुबलसागर जी महाराज का चातुर्मास था। उस स्थान के निकटवर्ती गांव में एक तरुण को नाग ने डस लिया। उसकी अत्यंत शोचनीय स्थिति हो गई। सब प्रयोग जीवनरक्षा के विफल हुए । उस समय लोगों ने जैन साधुराज के समीप आकर कृपा हेतु प्रार्थना की। संघ सहित साधुराज ने जैन मंत्र स्तोत्र का प्रयोग किया। अल्पकाल में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। जन मानस में जैनधर्म का महत्व प्रतिपादित हुआ। आज हमारी श्रद्धा भगवान से दूर होकर लक्ष्मी के प्रति हो गयी है। इसलिये जिनशासन की शरण में रहते हुए भी हमारी हीन अवस्था हो रही है। आज अनेक उच्च विद्वानों में भी श्रद्धा का दिवाला निकला हुआ दिखाई देता है। वे अपने स्वामियों के प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनका गुणगान करते हुए नहीं थकते, उनके पापकर्मों का समर्थन करते हैं, किन्तु जिनेन्द्र की भक्ति करते समय उनकी आत्मा को अद्भुत पीड़ा हो जाती है। इसका कारण यही है कि मिथ्यात्व प्रकृति ने उनकी आत्मा को डस लिया है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है सर्प डस्यो तब जानिये, रुचिकर नीम चबाय। कर्म डस्यो तब जानिये, जिनवाणी न सुहाय॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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