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चारित्र चक्रवर्ती सर्वशास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके श्रेष्ठ तप करते हुए भी मुनिराज अंत में एकचित्त हो इस पंचगुरु नाम स्मरण रूप मंत्र की ही आराधना करते हैं। यह पंच परमेष्ठी वाचक मंत्र स्मृतिधारा द्वारा जिसके चित्त में वर्षा करता है अर्थात् जो इसका निरंतर स्मरण करता है उसके क्षुद्र उपद्रव रूपी धूल शांत हो जाया करती है।" जिनसेन स्वामी ने भगवान् को मंत्रवेत्ता, मंत्रनिर्माता, मंत्रधारक तथा मंत्रमूर्ति कहा है।
कवि धनंजय कहते हैं कि विष को दूर करने वाली मणि, औषधि, मंत्र, रसायन आदि के उद्देश्य से जगत के जीव भटकते फिरते हैं, किन्तु आश्चर्य है कि वे आपका स्मरण नहीं करते । यथार्थ में ये जिन भगवान के ही नामान्तर है । जिनेन्द्र भगवान का एकाग्रता और श्रद्धापूर्वक स्मरण करने से क्या नहीं होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्य वीरसेन ने धवल ग्रंथ में लिखा है-"जिनेन्द्रदेव के गुणों का कीर्तन करने से विघ्न नष्ट हो जाते हैं, भय दूर होता है, दुष्ट देवता आक्रमण नहीं करते हैं तथा इच्छानुसार वस्तुओं का निरन्तर लाभ होता है।" सर्प विष निवारण
हमने सितंबर सन् १९५२ में भोज के जिनमन्दिर की कुटी में सुबल महाराज नाम के ७६ वर्ष की अवस्था वाले शांतमूर्ति ऐलक का दर्शन किया था। पहले वे सांगली (कोल्हापुर) ग्राम के पाटील थे। उनका नाम उस समय पायगौड़ा सत्यगौड़ा पाटील था। उन्हें दीक्षा लिए हुए ७ वर्ष हो गये थे। उन्होंने अपनी दीक्षा लेने के कारण पर इस प्रकार प्रकाश डाला था, “सात वर्ष हुए एक भयंकर सर्पराज ने हमें काट लिया। उससे जीवन की रक्षा असम्भव प्रतीत होती थी। उस समय हमारे शरीर में अपार दाह हो रहा था। प्यास की भी वेदना हो रही थी। उस समय हमने सोचा कि इस विकराल सर्प के काटने से बच गये तो दीक्षा ले लेंगे और यदि न बचे तो समाधि पूर्वक प्राण विसर्जन करेंगे।" ___ "सुयोग की बात थी, उस समय क्षुल्लक समंतभद्रजी तथा कीर्तनकार जिनगौड़ा पाटील मांगूरकर ने भक्तिपूर्वक विषापहार स्त्रोत का पाठ पढ़ना प्रारंभ किया। इस समय जिन भगवान का पंचामृत अभिषेक भी किया गया था। ऋषिमंडलमंत्र का जाप भी चल रहा था। उस समय हमारे शरीर में अवर्णनीय पीड़ा हो रही थी। अभिषेक तथा शांतिधारा पूर्ण होने पर अभिषेक का सारा जल हम पर डाल दिया गया। उसका जल शरीर पर पड़ते ही तत्काल सारी वेदना दूर हो गयी। हमारा शरीर विष रहित हो गया।" ___ “अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार हम मुनिराज पायसागर जी के पास बोरगांव पहुंचे जहां
आठवें दिन आहार लेने वाले आदिसागर मुनिराज हुए हैं। पायसागर जी महाराज के पास हमने क्षुल्लक दीक्षा ली। दीक्षा लेने के बाद १८ नवंबर सन् १६४६ को हमने शिरगुप्पी में ऐलक दीक्षा ली।"
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