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________________ ७७ संयम-पथ के समान कोई दुःखदाता नहीं है । सम्यक्त्व का प्राण वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान के प्रति पवित्र श्रद्धा धारण करना है । निर्ग्रन्थ गुरु और जिनेन्द्र की वाणी को शिराधार्य करना सम्यक्त्व है, इसी मर्म को ध्यान में रख महाराज ने गृह त्याग करते ही लोगों के सिर पर सवार मिथ्यात्व गृह के त्याग कराने का शाश्वतिक शांतिप्रद कार्य किया था । उनके तपोमयी जीवन से यह कठिन और असंभव कार्य अत्यन्त सरल हो गया था । जैनवाड़ी की आंतरिक शुद्धि करके महाराज ने उसे यथार्थ में जैनवाड़ी बना दिया था। अब वहाँ कोई भी कुदेव की आराधना नहीं करता है। चातुर्मास के बाद वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ-वहाँ उन्होंने मिथ्यात्व रूपी राक्षस को भगा, जिन भक्ति का मंगलदीप जलाया । बाहुबली कुंभोज क्षेत्र पर्यटन करते हुए वे कुंभोज के निकटवर्तीय बाहुबली क्षेत्र में पधारे । यह स्थान अतिशय क्षेत्र सदृश माना जाता है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व बाहुबली नाम के उच्च तपस्वी मुनिराज यहाँ रहते थे। उनकी तपस्या महान् थी। कभी-कभी उनके पास शेर आकर प्रेमभाव से बैठा करता था । ऐसे प्रभावशाली दिगंबर मुनि के कारण इस क्षेत्र को बाहुबली नाम प्राप्त हुआ । गिरनार की यात्रा जब महाराज यहाँ विराजमान थे, तब कुछ समडोली आदि के धर्मात्मा भाई गिरनार जी की यात्रा के लिये निकले और बाहुबली क्षेत्र के दर्शनार्थ वहाँ आये और महाराज का दर्शन कर अपना जन्म सफल माना । उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि नेमिनाथ भगवान निर्वाण से पवित्र भूमि गिरनारजी चलने की कृपा कीजिए । महाराज की तीर्थ भक्ति असाधारण रही आयी है, इसलिये महाराज ने चलने का निश्चय कर लिया। उस समय वे रेल में बैठकर गिरनारजी गए थे। यहाँ प्रत्येक धार्मिक के मन में यह शंका अवश्य उत्पन्न होगी कि इतने बड़े तपस्वी महात्मा ने स्वावलंबन पूर्वक गिरनार की पैदल यात्रा क्यों नहीं की ? इस विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है । महाराज की दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचरण एक दिन महाराज से ज्ञात हुआ था कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नहीं पलता था । प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेट कर जाते थे और आहार के समय दिगंबर होते थे । आहार के लिये पहले से ही उपाध्याय (जैन पुजारी) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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