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________________ पंद्रह इस संस्करण के संदर्भ में तलाश में चित्त में रह-रहकर उभर रहा था कि पंडित जी ने जितना विषय इस ग्रंथ में दिया है, वह उन्हें मिला कहाँ से ? क्योंकि १९५१ में निर्णय हुआ कि चरित्र लिखना है, वर्षभर में चरित्र तैयार होकर १९५३ में मुद्रित भी हो गया, तो वर्षभर में भ्रमण कर इतनी सामग्रो जुटा लेना संभव ही नहीं। इतना ही नहीं, अपितु वे तो शिखरजी में भी उनके साथ नहीं थे, वे तो वापसी में लौटते हुए कटनी से अर्थात् १६२८ के पश्चात् आचार्यश्री की परीक्षा करने के बाद आचार्य श्री से जुड़े थे। अतः प्रश्न यह था कि इतनी सामग्री आखिर पंडित जी को मिली तो मिली कहाँ से? बस यहीं से पंडितजी का गौरव करने को मन करता है। उनके अथक परिश्रम पर आस्था उत्पन्न होती है। वह साहित्य जो कि चारित्र चक्रवर्ती में एक सुंदर सी माला के सदृश्य गुंफित है,आज मेरे सम्मुख भिन्न-भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे मोती सदृश्य बिखरा पड़ा हुआ है। निश्चित ही १९५१ में पंडितजी के सम्मुख भी यह इसी तरह यत्र-तत्र बिखरा पड़ा होगा। बहुत कठिन कार्य है इन्हें सहेजना, इनका क्रम निश्चित करना, इनकी सूची बनाना, उन्हें छाँटना व फिर उन्हें मस्तिष्क में बैठलाना, बैठा कर उनके पूर्वापर संबंधों का मिलान करना, और अंत में बगैर इनके इतिहास व इनकी प्रामाणिकता को तिल-तुष मास भो छेड़े, उन्हें ऐसी शैली में प्रस्तुत करना कि पाठकों को लगे कि वे आचार्य श्री के काल में आचार्य श्री के साथ ही विचरण कर रहे हैं। निश्चित ही अद्भूत व अद्वितीय उद्यम की अपेक्षा करने वाला कार्य है यह। स्वयं का अथवा जिनके साथ हम सतत रहे, उनका यात्रा अथवा जीवन वृतांत लिखना तो सरल कार्य है, किंतु जिनके साथ हम सतत नहीं रहे, उनकी यात्रा अथवा जीवन वृतांत की जानकारियों को एकत्रित करना, फिर उनकी प्रामाणिकता की परीक्षा करना, मात्र उनकी ही प्रामाणिकता की परीक्षा करना ऐसा नहीं, अपितु मैं जो कि इन्हें संकलित कर एक सुंदर सी माला का रूप देने जा रहा हूँ, तो मैं भी इस कार्य की सिद्धि के लिये प्रामाणिक व अधिकारिक व्यक्ति हूँ, की भी सिद्धि करना । निशिचित ही दुरुह कार्य है यह ।। पंडितजी ने दोनों ही परीक्षाओं को गरिमापूर्ण ढंग से उत्तीर्ण किया। आइये अब इन बिखरे मोतियों के संदर्भ में कुछ जानें। पंडितजी के द्वारा लिखा गया यह चारित्र ग्रंथ प्रथम चारित्र ग्रंथ था, ऐसा नहीं, इस के पूर्व भी आचार्यश्री के चारित्र मुद्रित हो चुके थे। सन् १९३१ में सेठ जीवराज गौतमचंद जी ने मराठी में लिखा था। उनके पश्चात् पंडित बंशीधर जी शास्त्री (सोलापुर वाले) ने १९३३ में हिन्दी में लिखा। इनमें से बंशीधर जी के द्वारा लिखित चारित्र विक्रम संवत् १९८८ तक हुए तेरह चातुर्मासों का सिलसिले वार ब्यौरा देनेवाला अद्भूत संकलन ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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