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________________ संयम-पथ ७१ सत्संग का लाभ रहा। वर्षा योग के अनंतर वे निरंतर विहार द्वारा भव्य जीवों का कल्याण करते रहे। उनका तीसरा चातुर्मास पुनः कोगनोली में हुआ। इसके बाद महाराज ने कर्नाटक प्रांत की ओर विहार कर सन्मार्ग की प्रभावना की। जैनवाड़ी में सम्यक्त्व की धारा ___ जैनवाड़ी में आकर उन्होंने वर्षायोग का निश्चय किया। इस जैनवाड़ी को जैनियों की बस्ती ही समझनी चाहिये। वहाँ प्राय: सभी जैनी थे। किन्तु वे प्राय: भयंकर अज्ञान में डूबे हुए थे। सभी कुदेवों की पूजा करते थे। महाराज की पुण्यदेशना से सब श्रावकों ने मिथ्यात्व का त्याग किया और अपने घर से कुदेवों को अलग कर कई गाड़ियों में भरकर उन्हें नदी में सिरा दिया। उस समय वहाँ के जो राजा थे, यह जानकर आश्चर्य में पड़े कि क्षुल्लक महाराज (आचार्य महाराज) तो स्वयं ही बड़े पुण्यचरित्र महापुरुष हैं, वे भला हम लोगों के द्वारा पूज्य माने गए देवों को गाड़ी में भरवाकर नदी में डुबोने का कार्य क्यों कराते हैं ? राजा और रानी, दोनों ही महाराज की तपश्चर्या से पहले ही खूब प्रभावित थे। उनके प्रति बहत आदरभाव भी रखते थे। एक दिन राजा पूज्यश्री की सेवा में स्वयं उपस्थित हुए और बोले-"महाराज! आप यह क्या करवाते हैं, जो गाड़ियों में देवों को भरवाकर नदी में पहुँचा देते हैं ?" महाराज ने कहा-“राजन् ! आप एक प्रश्न का उत्तर दो कि आप के यहाँ भाद्रपद में गणपति की स्थापना होती है या नहीं ?" राजा ने कहा-“हाँ महाराज ! हम लोग गणपति को विराजमान करते हैं।" महाराज ने कहा-"उनकी स्थापना के बाद आप क्या करते हैं ?" राजा ने कहा-"महाराज हम उनकी पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं।" महाराज ने पूछा-“उस उत्सव के बाद क्या करते हो?" राजा ने उत्तर दिया- “महाराज बाद में हम उनको पानी में सिरा देते हैं।" महाराज ने पूछा-“जिनकी आपने भक्ति से पूजा की, आराधना की उनको पानी में क्यों डूबो दिया ?" राजा ने कहा-“महाराज, पर्व पर्यन्त ही गणपति की पूजा का काल था। उसका काल पूर्ण होने पर उनको सिराना ही कर्तव्य है।" महाराज ने पूछा-"उनके सिराने के बाद आप फिर किनकी पूजा करते हैं ?" राजा ने कहा- “महाराज हम इसके पश्चात् राम, हनुमान आदि की मूर्तियों की पूजा करते हैं।" महाराज ने कहा-“राजन् ! जैसे पर्व पूर्ण होने के पश्चात् गणपति को आप सिरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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