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चारित्र चक्रवर्ती उसे सुख प्रदान करता है।
इसी प्रकार सद्गुरु मिथ्या मार्ग का पालन कर अपनी मृत्यु का गड्ढा खोदने वाले जीवों को सदुपदेश द्वारा सच्चा जीवन और आनंद प्रदान करते हैं। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में आलोक और अन्धकार सदृश एक्य का स्थापन त्रिकाल में भी शक्य नहीं है। सत्य
और असत्य, अहिंसा और हिंसा, शील और कुशील में कैसे मैत्री उत्पन्न की जा सकती है ? इसी प्रकार मोक्षमार्ग के निरूपण में जैन शासन सत्यानुरोध से तथा जीव के कल्याण की कामना से मिथ्यात्व का मूलोच्छेद करना आवश्यक बताता है। इस विषय में तनिक भी शैथिल्य रहा तो मिथ्यात्व का काला नाग डसे बिना नहीं रहेगा।
विचारवान व्यक्ति सरलता से इस तत्त्व को हृदयंगम कर लेगा कि जैन दृष्टि क्यों मिथ्यात्व का निषेध करती है ? भोले लोग न जाने कितनी मिथ्या वस्तुओं को देवी देवता का नाम दे उनकी भक्ति करते हुए अपने अमूल्य नर जन्म को नष्ट करते हैं। पहले जब रेल चली थी, तब रेल का इंजन ग्रामीणों को भगवान सदृस था। अभी १९५२ का जो स्वतंत्र गणतंत्र भारत का चुनाव हुआ इसमें मतदान पेटी का (बेलेट बाक्स) भी भगवान बन गया था। कई ग्रामीणों ने उस पेटी की पूजा की, उसका ध्यान किया। वोट भगवान का शांत भाव से स्मरण किया। ऐसी भ्रांत धारणाओं पर वैज्ञानिक दृष्टि का जब तक चाकू नहीं चलता है, तब तक दृष्टि शुद्ध नहीं होती है। अतः विवेकी व्यक्ति का कर्तव्य है कि विज्ञान, विचार तथा अनुभूति की कसौटी पर सत्य प्रमाणित होने वाली दृष्टि को स्वीकार करें, न कि मानसिक दुर्बलता वश दूध और चूने को, काक और कोकिल को वर्ण साम्य होने से एक मानने का, सत्य के शासन के विरुद्ध अपराध करें। ___इसी कारण जिनेन्द्र के शासन की छत्रछाया में भूले भाईयों को लाकर पूज्यश्री ने अवर्णनीय उपकार किया। महाराज ने तो यह नियम कर लिया था कि जिसके यहाँ मिथ्यात्व की आराधना होती होगी और जो अपने यहाँ कुदेवों को विराजमान किए होगा उसके यहाँ आहार नहीं लेंगे। उनकी इसी प्रतिज्ञा रूपी औषधि ने बहुत शीघ्र मिथ्यात्व की बीमारी को दूर कर दिया। इसी सम्यक्त्व प्रसार के कार्य से पूज्यश्री के वात्सल्य, स्थितिकरण, उपगूहन तथा प्रभावना रूपी सम्यक्त्व के अंगों की विशुद्धता प्रकाशित होती है। यह इस तथ्य को सूचित करता है कि महाराज के चित्त में लोक कल्याण की कितनी उज्ज्वल तथा पवित्र भावना वेग से काम कर रही थी। उन्हें निरन्तर यही दिखता था कि इन अज्ञ जीवों का भ्रमभाव भगाकर कैसे उनको सत्यमार्ग पर लगाया जाए, जिससे वे संसार के दुःखों से व्यथित न होवें। कोगनोली में वर्षायोग व्यतीत कर क्षुल्लक महाराज ने अपने विहार द्वारा सम्यक्त्व का प्रकाश फैलाने का कार्य बड़ी तत्परता से किया।
उन्होंने अपना दूसरा चातुर्मास कुंभोज में किया था। यहाँ आदिसागर मुनिराज के
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