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________________ चारित्र चक्रवर्ती उस समय महाराज ने मुझे देखकर कहा, “पंडित जी ! तुम कैसे आनंद से सुन्दर आसन पर बैठे हो ! हमारा आसन देखो ?" इतना कहते उनके चेहरे पर मधुर स्मित आया, वे चुप हो गए। ___ मैंने कहा, “महाराज! आपके उपस्थित रहते इस शास्त्र की गद्दी पर बैठने का हमारा अधिकार नहीं है, यह तो आपकी आज्ञा ही है, जो मुझे यहाँ बैठने का अवसर मिला है।" २) संयम : दूसरे वर्ष सन् १९५० में गजपंथा में दशलक्षण पर्व मे मैं शास्त्र पढ़ रहा था। भादों सुदी दशमी थी। संयम का वर्णन चल रहा था। रइधु कवि रचित दशलक्षण अपभ्रंश भाषा की पूजा का अर्थ मैं करता था, फिर उस पर ही विवेचन चलता था। मैंने पढ़ा-“संयम बिन जीवन सयल सुण्ण-संयम बिन घडिय म इक्क जाहु", व उसका अर्थ किया, “संयम के बिना सारा जीवन शून्य हो जाता है, अतः संयम के बिना एक क्षण भी न जाने दो।" आचार्यश्री बोले-“पंडितजी एक बार फिर से कहो।" । गुरुदेव की आज्ञा सुन मैने पुन: पढ़ दिया कि संयम के बिना सारा जीवन शून्य रहता है। इतने में मेरी दृष्टि पूज्यश्री के स्मित और कारुण्य भाव भूषित मुख मंडल पर पड़ी। मैं तत्काल समझ गया कि इस वाक्य को पुन: पढ़वाने का भाव महाराज का हम सरीखे पढ़े लिखे लोगों का ध्यान संयम की महत्ता को समझकर उस पुण्य पथ पर चलने को प्रेरणा करने का था। मैं उनके गंभीर भाव को विचार कर उनके समक्ष नतमस्तक हो गया और कहा, “महाराज ! जब तक सौभाग्य का सूर्य नहीं उगता, संयम घातक कर्म पटल नहीं हटता, तब तक यह सौभाग्य कहाँ ? आपके चरणों के समीप इसीलिये आते हैं कि आत्मा की मलीनता दूर होकर जीवन उज्ज्वल बन जावे।"महाराज का यह कहना, “एक बार फिर से पढ़ो", रह-रह कर याद आता है कि उन महान् आत्मा ने कितना मार्मिक, मधुर इंगित संयम पथ पर चलने का किया था।" पक्षी पर करुणा ___ मुनिवृत्ति द्वारा संयमी का सर्व जीवों के साथ मैत्री का सुमधुर संबंध स्थापित हो जाता है। उसका प्रत्यक्षीकरण १९५१ के पर्दूषण पर्व के समय आचा श्री के बारामती चातुर्मास में हुआ, जबकि मुझे वहाँ लगभग एक माह रहने का सौभाग्य प्राप्त हआ था। पूज्यश्री की मध्याह्न सामायिक पूर्ण हुई। उसके बाद मैंने देखा कि महाराज एक पक्षी के छोटे बच्चे के विषय में बड़ा ध्यान लगा पार्श्ववर्ती एक ग्रामीण कर्मचारी से बातें कर रहे थे। पूछने पर ज्ञात हुआ कि महाराज उस पक्षी के रक्षण की भावना से युक्त थे। जब शास्त्र पढ़ने मैं आया, तब मैंने पूछा, “महाराज, यह क्या है ?" महाराज ने कहा, “यह पक्षी का बच्चा इस भवन के ऊपर से नीचे आ गया। यहाँ-वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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