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चारित्र चक्रवर्ती जहाँ भगवान बाहुबलि की त्रिभुवन मोहिनी मूर्ति विराजमान है।"
महाराज ने कहा, “हमारा ध्यान निर्वाणभूमि का है।" मैंने कहा, “इस दृष्टि से वीर भगवान का निर्वाण स्थान पावापुरी अधिक अनुकूल रहेगा।"
महाराज ने कहा, “वह स्थान बहुत दूर है, अब हमारा वहाँ पहुंचना संभव नहीं दिखता। इसका विशेष कारण यह है कि हमारे नेत्रों में कांच बिंदु (Glocoma) नाम का रोग हो गया है, जो अधिक चलने से बढ़ता है। उससे नेत्रों की ज्योति मन्द होती जा रही है। यदि दृष्टि की शक्ति अत्यन्त क्षीण हो गई, तो हमें समाधिमरण लेना होगा।"
इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा, “देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईर्यासमिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असम्भव हो जायेगा। इससे चतुर्विध आहार का त्याग करना आवश्यक होगा।" समाधि के विषय में सावधानी
अब सात वर्ष व्यतीत होने के बाद इस वर्ष अगस्त सन् १९५२ में लोणंद चातुर्मास के समय उन्होंने पयूषण पर्व में हमसे कहा, “हमारा विचार अब चातुर्मास पूर्ण होने के अनन्तर निर्वाण भूमि की ओर जाने का हो रहा है। हमने दो वर्ष पूर्व गजपंथा में विजयादशमी के दिन १२ वर्ष के भीतर समाधिमरण का उत्कृष्ट नियम लिया था, ऐसा ही नियम हमने वर्धमानसागर को भी दिया है। इस काल से अधिक हमारा शरीर नहीं टिकेगा। उसकी भी अवस्था ६२ वर्ष की हो गई है। वह भी अधिक समय तक नहीं रहेगा, इससे हमने उसे भी उक्त संदेशा भिजवाया था।" व्यवहार धर्म पालते हुए निश्चय पर दृष्टि
अपने नेत्र रोग के विषय में उन्होंने कहा, "हमें अपना कल्याग करना है। हम व्यवहार क्रियाओं को पालते हैं, किन्तु हमारा ध्यान निश्चय पर अधिक है। भगवान के ज्ञान में जो हमारा भवितव्य है, वह होगा। उस पर अटल श्रद्धा है। अपने अंतिम दिनों में हम निर्वाण भूमि में जाने का निश्चय कर रहे हैं। निर्वाण भूमि में रहकर जीवन व्यतीत करना और अंत में वहीं समाधि करने का हमारा इरादा है।" इस उदाहरण से उनकी अपार तीर्थ-भक्ति स्पष्ट होती है । मित्र के जीवन पर प्रकाश
एक दिन आचार्यश्री, सेठ चंदूलाल सराफ के वस्ती से दूर बारामती के सुन्दर उद्यान में सन् १९५१ के ग्रीष्म काल में विराजमान थे। वहाँ का प्रशान्त और पवित्र वातावरण
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