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वार्तालाप करता है और दुबले पतले लोग फूल की तरह हल्के मन की अनुभूति करते हुए शैलशिखर पर चढ़ जाते हैं। पर्वत की वंदना के हेतु जाती हुई मातायें अपने शिशुओं का भार उठाने में भी अपार कष्ट का अनुभव करती हुई नौकरों का सहारा ढुंढा करती हैं। उस वंदना में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी चिन्ता में व्यस्त रहा करता है। करुणा भाव-१ (क्लांत वृद्धा को पीठ पर लाद शिखरजी की वंदना) __ आचार्यश्री पर्वत पर चढ़ रहे थे। उनकी करुणापूर्ण दृष्टि एक वृद्ध माता पर पड़ी, जो प्रयत्न करने पर भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो गई थी। थोड़ा चलती थी, किन्तु फिर ठहर जाती थी। पैसा इतना न था कि पहले से ही डोली का प्रबन्ध करती। उस माता को देखकर इन महामना के हृदय में वात्सल्य भाव उत्पन्न हुआ। इन्होंने माता को आश्वासन देते हुए धैर्य बंधाया और अपनी पीठ पर उनको बैठाकर पर्वतराज की कठिन वंदना करा दी। हमें तो यह प्रतीत होता है कि उस समय पर्वतराज पर उस माता का भार ही इन्होंने नहीं उठाया, किन्तु आगामी मानवता के उद्धार का पवित्र भार उठाने की शक्ति की परीक्षा भी की थी। आज प्रतिष्ठा का रोगी निर्धन भी थोड़े से भार को उठाने में असमर्थ बन नौकर या वाहन को खोजा करता है, किन्तु ये श्रीमंत भीमगौंडा पाटील के अनन्य स्नेह के पात्र आत्मज अपनी प्रतिष्ठा, एक जिन चरण भक्त निर्धन माता को पीठ पर लादकर पर्वत की वंदना कराना मानते थे। ऐसी ही घटनाओं से अंत:करण की पवित्रता और महत्ता का अनुमान होता है। करुणा भाव-२ (क्लांत पुरुष को पीठ पर लाद राजगिरिजी की वंदना)
ऐसी ही घटना राजगिरि की पंच पहाड़ियों की यात्रा में हुई। वहां की वन्दना बड़ी कठिन लगती है। कारण वहां का मार्ग पत्थरों के चुभने से पीड़ाप्रद होता है। जैसे यात्री शिखरजी आदि की अनेक बार वन्दना करते हुए भी नहीं थकता है, वैसी स्थिति राजगिरि में नही होती है। यहाँ पाँचों पर्वतों की वन्दना एक दिन में करने वाला अपने को धन्यवाद देता है। महाराज ने देखा कि एक पुरुष अत्यधिक थक गया है और उसके पैर आगे नहीं बढ़ रहे हैं। उस पहाड़ी पर चढ़ते समय बलवान आदमी भी थकान तथा कठिनता का अनुभव करता है, किन्तु इन बली महात्मा ने उस पुरुष को पीठ पर रखकर वन्दना करा दी। इससे बाह्य दृष्टि वाले इनके शारीरिक बल की महत्ता आंकते हैं, किन्तु हमें तो इनके अन्त:करण तथा आत्मा की अपूर्वता एवं विशालता का परिज्ञान होता है। __ आज भी निर्वाण स्थल की ओर उनकी आत्मा विशेष आकर्षित हो रही है। उन्होंने सन् १९४५ में फलटण के चातुर्मास के समय हमसे पूछा था कि समाधि के योग्य कौनसा स्थान अच्छा होगा ?
मैंने कहा, “महाराज मेरे ध्यान में श्रवणवेलगोला का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है,
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