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________________ वार्तालाप बड़ा प्रिय लगता था। एक दिन मैंने पूछा, “महाराज, गृहस्थ जीवन में आपके निकट संपर्क में आने वाले अनेक व्यक्ति रहे होंगे, उनमें उल्लेखनीय स्थान किसका था ?" __ महाराज ने कहा, "हमारा एक मित्र था। उसका नाम रुद्रप्पा था। वह लिंगायत जाति का था। बड़ा श्रीमंत था। उसके यहां तंबाखू का व्यापार होता था। भोज में तंबाखू का मुख्य व्यापार है। रुद्रप्पा उत्कृष्ट सत्यभाषी था। वह भोजन के उपरांत अपने घर के कमरे में चुपचाप बैठा रहता था। किसी से व्यर्थ का वचनालाप नहीं करता था। प्राय: जंगल में जाता था और ध्यान करता था। वह हमसे हृदय खोलकर बातें करता था। उससे हमारी खूब चर्चा चलती थी।" नीतिकार कहता है, “समान शील-व्यसनेषु मैत्रीं" (समान शील व स्वभाव वालों से मित्रता होती है) पूर्णतया चरितार्थ होती है, कारण कि दोनों ही सत्य निष्ठ और दोनों ही ईश्वर के भक्त. उनमें घनिष्ठता होना स्वाभाविक तथा उचित भी है। सत्य की आदत महाराज ने कहा, “बचपन से ही हमारी सत्य का पक्ष लेने की आदत रही है। हमने कभी भी असत्य का पक्ष नहीं लिया। अब तो हम महाव्रती मनि हैं। हम अपने भाइयों अथवा कुटुम्बियों का पक्ष लेकर बात नहीं करते थे। सदा न्याय का पक्ष लेते थे, चाहे उसमें हानि हो। इस कारण जब कभी व्यापार में, लेनदेन में वस्तुओं के भाव आदि में झगड़ा पड़ जाता था, तब लोग हमारे कहे अनुसार काम करते थे। रूद्रप्पा हमारे पास आया करता था। हमारी धर्म की चर्चा होती थी। हम कभी लौकिक चर्चा या विचार नहीं करते थे।" जन्म भूमि में भी वंदित इस सत्यनिष्ठा, पुण्य-जीवन आदि के कारण भोजवासी इनको अपने अंत:करण का देवता सा समझा करते थे। इनके प्रति जनता का अपार अनुराग तब ज्ञात हुआ, जब इस मनस्वी सत्यपुरुष ने मुनि बनने की भावना से भोज भूमि की जनता को छोड़ा था। __ आज भी भोज के पुराने लोग इनकी गौरव गाथा को कहते हुए बताते हैं, “हमारे यहाँ का सूर्य चला गया।" जगत पूज्य व्यक्ति भी अपने स्थान में वंदित नहीं होता, ऐसी सूक्ति है। किन्तु सर्वत्र यह नियम नहीं देखा जाता। ये प्रकृतिसिद्ध महात्मा उस लोकोक्ति के बंधन से विमुक्त थे, कारण इनकी जन्मभूमि की जनता इनको देवता तुल्य, पूज्य तथा वंदनीय मानती थी। अंग्रेजी की प्रसिद्ध कहावत है कि अपनी जन्म भूमि तथा अपने घर को छोड़कर 1. “A Prophet is not without honour, save in his own country and in his own house."- New Testament, Matthew XIII, 57. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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