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________________ वार्तालाप ५० जैन धर्म में गरीबों का कोई ठिकाना नहीं है ? खेती आदि का व्यवसाय तो राष्ट्र का जीवन है। महाराज बोले “खेती का हमें स्वयं अनुभव है, उसमें परिणाम जितने सरल रहते हैं, उतने अन्य व्यवसाय में नहीं रहते हैं। अन्य धंधों में बगुले की तरह ध्यान रहता है, दुकानदार चुपचाप बैठा रहता है, किन्तु उसका ध्यान सदा ग्राहक की ओर लगा रहता है। ग्राहक दिखा कि वह उसके पीछे लगा। इन धंधों में हजारों प्रकार का मायाचार होता है। गृहस्थ गद्दी पर चुपचाप बैठे हुए ग्राहक का ध्यान करता है। बड़ी बड़ी गद्दी वाले हजारों लोग मायाचार पूर्वक धन को लेते हैं। सोना चाँदी के व्यापार में भी ऐसे ही भाव रहते हैं।" खेती के विषय में कुंदकुंद स्वामी रचित कुरल काव्य का कथन बड़ा महत्वपूर्ण है, उसमें कृषि के महत्व पर बड़ी मार्मिक बात कही गई है - उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग। और कमाई अन्य की खाते बाकी लोग।। निज कर को यदि खींच ले, कृषि से कृषक समाज। गृह त्यागी अरु साधु के टूटे सिर पर गाज।। जोतो नांदो खेत को, खाद बड़ा परतत्त्व । सींचे से रक्षा उचित, रखती अधिक महत्व ।। नहीं देखता भालता, कृषि को रहकर गेह। गृहणी सम तब रूठती, कृषि भी कुश कर देह। पाप का कारण मनोवृत्ति है, न कि द्रव्य हिंसा। आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक महाकाव्य में लिखा है, "परिणाम विशेष वश जीव घात न करता हुआ धीवर पाप का बंध करता है, किन्तु किसान कृषि में जीव घात होते हुए भी प्राणघाती मनोवृति ना धारण करने के कारण धीवर के समान पाप को नहीं प्राप्त करता है।" स्वयम्भू स्तोत्र में स्वामी समंतभद्र ने लिखा है,“शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः (प्रजा को आदिनाथ भगवान ने कृषि आदि षट्कर्म का उपदेश दिया था)।" अपूर्व तीर्थ भक्ति ___ महाराज की तीर्थ भक्ति अपूर्व थी। तीर्थस्थान के दर्शन करना तथा वहाँ निर्वाणप्राप्त आत्माओं का स्तवन करना तो प्रत्येक भक्ति की कृति में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु तीर्थ स्थान जाकर अपार विशुद्धि प्राप्त कर आत्मा को समुन्नत बनाने के लिये संयम भाव की शरण कितने व्यक्ति लिया करते हैं ? १. अघ्नन्नपि भवेत्पापी, निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभिध्यानविशेषेण यथा धीवरकर्षको ।। - अध्याय७, पृ. ३३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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