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________________ चारित्र चक्रवर्ती अजातशत्रु सब लोग उन पर प्रेम करते थे। वे अजातशत्रु थे। अत्यंत सादे ढंग से रहते थे। खादी की धोती, वाराबंदी, फेंटा उनके वस्त्र थे। वे अश्व परीक्षा में अनुपम थे। घोड़े के शरीरस्थ चिन्हों को देखते ही उसके गुण दोषों को जान लेते थे। वृषभ-परीक्षा में भी वे प्रवीण थे। प्रत्येक बौद्धिक कार्य में उनका प्रथम स्थान था। कृषि कार्य में उनका अनुभव दूसरों का मार्गदर्शक था। तम्बाखू, धान्य, इक्षु आदि फसलों के वे विशेषज्ञ थे। ऐसा कोई काम नहीं था, जिसमें उनका दूर-दूर तक के लोगों में दूसरा नम्बर हो। उनकी प्रत्येक चेष्टा से यह अनुमान होता था कि वे लोकोत्तर महापुरूष हैं । जब महाराज ने मुनि दीक्षा ली, तब जैन-अजैन सभी कहते थे-“हे घरांत साधू प्रमाणेच होते, आज प्रत्यक्ष साधू बनले, असा प्रत्येकाला भाव झाला"प्रत्येक व्यक्ति उस समय यही परिणाम हुए कि ये घर में साधु सदृश ही थे, आज ये साक्षात साधु बन गये । उनके दीक्षा लेने पर प्राय: सभी लोगों के नेत्रों में अश्रु आ गये थे। सबके उपकारी ये अकारण बंधु तथा सबके उपकारी थे। उनको धर्म तथा नीति के मार्ग में लगाते थे। वे भोज भूमि के पिता तुल्य प्रतीत होते थे। उनके साधु बनने पर ऐसा लगा कि नगर के पिता अब हमेशा के लिये नगर को छोड़कर चले गये। उस समय घर-घर में उनके पुण्य गुणों की चर्चा थी। आज भी पुराने लोगों की आँखों में उनकी चर्चा होते ही आँसू आ जाते हैं कि उन जैसी विश्वपूज्य विभूति के ग्राम में हम लोगों का जन्म हुआ है। अत्यंत मधुर जीवन हमारे घर के अत्यंत सन्निकट उनकी दुकान थी, जहाँ वे पुण्यपुरुष सदा बैठा करते थे, इससे हमें उनका पूरा-पूरा हाल ज्ञात है। हमें वे घर में ही योगी सदृश लगते थे। उनके जीवन में एक भी दोष हमारे देखने में नहीं आया। दोष शून्यता को ही उनका दोष कहा आ सकता है। उनके जीवन में एक अपूर्व मधुरता थी। उनके पास बैठने में, उनकी बोली सुनने में बड़ा अच्छा लगता था। उनका सदृष्टांत तथा कथा सन्दर्भ संयुक्त शास्त्र विवेचन हृदय के द्वार खोल देता था। वे पराई निंदा तथा कटु भाषण से दूर रहते थे। उनका ब्रह्मचर्य अत्यंत निर्दोष था। वे बड़े भारी प्रतिभा सम्पन्न थे। कैसा भी कठिन प्रश्न उपस्थित किये जाने पर वे अपनी अद्भुत प्रज्ञा शक्ति द्वारा उसका समाधान करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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