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________________ सुरियाभी १४५ दिण्ण पंचगुलितल करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं उवचियवंदणकलसं वंदणघड सुकतोरणपडिवारदेसभागं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं आसतोसत्तविट्टवरघारियमल्लदामकलावं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं पंचवण्णसुरभि' - मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिये करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमानं कालागरुपवरकुंदुरुक्क - तुरुक्क - धूव-मघमघेतगंधुद्धयाभिरामं करेंति अप्पेगइया देवा सूरियाभं faari सुगंधगंध गंधवट्टिभूतं करेंति अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति, सुवण्णवासं वासंति, रयणवासं वासंति, वइरवासं वासंति, पुप्फवास वासंति, 'फलवासं वासंति", मल्लवासं वासंति, गंधवासं वासंति चुण्णवासं वासंति, आभरणवासं वासंति, अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहि भाएंति एवं सुवण्णविहि रयणविहि पुप्फविहिं फल विहि मल्ल विहि गंध णविहि आभरण विहि भाएंति अप्पेगतिया देवा चउव्विहं वाइतं वाएंतिततं विततं घणं सुसिरं अप्पेगइया देवा चउब्विहं गेयं गायंति, तं जहा उक्खित्तायं पायंतायं मंदायं रोइयावसाणं" अप्पेगतिया देवा दुयं नट्टविहि उवदंसेति अप्पेगतिया देवा विलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा दुय-विलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति, अप्पेगतिया देवा अंचियं नदृविहि उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेrइया देवा अंचिय-रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगइया देवा आरभडं नट्टविहिं उवदति अप्पेगइया देवा भसोलं नट्टविहिं उवदंसेति अप्पेगइया देवा आरभड-भसोलं नट्टविहिं उवदति अप्पेइगया देवा उपायनिवायपसत्तं संकुचिय- पसारियं रियारिय अंत-संभंत णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति, तं जहा - दिट्ठतियं पाडंतियं सामन्न ओविणिवाइयं' लोगमज्झावसाणियं अप्पेगतिया देवा 'बुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा पीर्णेति अप्पेगतिया लासेंति, अप्पेगतिया तंडवेंति" अप्पेगतिया बुक्कारेंति, पीर्णेति, लासेंति, तंडवेंति, अप्पेगतिया अप्फोडेंति, अप्पेगतिया वग्गंति अप्पेगतिया तिवई छिंदंति अप्पेगतिया अप्फोडेंति, वग्गंति, तिवई छिंदति अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति अप्पेगतिया हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगतिया रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, रहघणघणा करेंति, अपगतिया 'उच्छलेंति, अप्पेगतिया पोच्छलेंति" अप्पेगतिया उक्aिट्ठिय १. वण्णसरस सुरभि (ओ० सू० २) । २. सुगंधियं (घ) सुगंधवरगंधगंधिए ( ओ० सू० २) । ३. x (क, ख, ग, घ, च, छ) । ४. अतः परं वइरविहि' इति पाठः प्राप्तोस्ति, किन्तु आदर्शेषु नोपलभ्यते जीवाजीवाभिगमवृत्ती 'वइरवासं वइरविहि' एतौ द्वावपि न स्तो व्याख्यातौ । ५. तत्थ अप्येगइया देवा आभरण (क, ख, ग, घ, च, छ} । Jain Education International 7 द्रष्टव्यं ६. पायत्तायं (क, ख, ग, घ, च, छ ) । ७. रोइंदा (क, ख, ग, घ, च, छ ) ; ११५ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । ८.रेयाइयं (क, ख, ग, घ, च, छ) 1 ६. सामंत (क, ख, ग, च, छ ); द्रष्टव्यं ११७ सूत्रस्य पादटिप्पणम् । १०. वक्कारेंति अप्पेगतिया पीर्णेति अप्पेगतिया आयासेति अप्पेगतिया तंडावेंति (क, च) । ११. उच्छोलेंति अप्पेगतिया पच्छोलेंति (क, ख, ग, घ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003569
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Raipaseniyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size9 MB
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