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________________ ९. निशीथ प्रस्तुत सूत्र का नाम "निशीथ" है । "निशीथ" का अर्थ अप्रकाश है।' यह सूत्र अपवाद-बहुल है, इसलिए इसका यत्र-तत्र प्रकाशन नहीं किया जाता, हर किसी को नहीं पढाया जाता । पाठक तीन प्रकार के होते हैं अपरिणामक-जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं होती। परिणामक-जिनकी बुद्धि परिपक्व होती है । अतिपरिणामक-जिनकी बुद्धि कुतर्कपूर्ण होती है। अपरिणामक और अतिपरिणामक--ये दोनों निशीथ पढने के अधिकारी नहीं हैं। जो 'रहस्य' को धारण नहीं कर सकता वह निशीथ पढ़ने का अनधिकारी है। जो आजीवन रहस्य को धारण कर सकता है, वही पढने का अधिकारी है। यह भाष्यगत "रहस्य" शब्द निशीथ के अप्रकाशात्मक होने की प्रतिध्वनि है। निशीथ का कर्तृत्व जैन-आगमों की रचना के दो प्रकार प्राप्त होते हैं (१) कृत और (२) नियूंढ । जिनकी रचना स्वतंत्ररूप से हुई है, वे आगम कृत है । जैसे द्वादशांगी गणधर द्वारा कृत है तथा उपांग आदि आगम भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा कृत हैं। निर्यढ आगम ये हैं-दशवकालिक २. आचार-चूला ३. निशीथ ४. दशाश्रुतस्कन्ध ५. बृहत्कल्प ६. व्यवहार । दशवकालिक चतुर्दशपूर्वी शय्यम्भवसूरि द्वारा नियूंढ है। शेष पांच आगम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहुस्वामी द्वारा नियूंढ है। आकार और विषयवस्तु "निशीथ" आचारांग की पांचवीं चूला है। इसे एक अध्ययन के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसीलिए इसे "निशीथाध्ययन' भी कहा जाता है। इसके बीस उद्देशक हैं। उनमें से उन्नीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान है और बीसवें उद्देशक में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया है। उद्देशक सूत्रांक प्रायश्चित्त मासिक अनुद्घातिक (गुरु मास) ५८ मासिक उद्घातिक (लघु मास) ८० ११५ १. निशीथभाष्य, श्लोक ६६ : जं होति अप्पगासं तं तु णिसोहं ति लोगसंसिद्धि । जं अप्पगासधम्म, अण्णे पि तयं निसीधं ति ॥ २. निशीथचूणि, पृ० १६५ : पुरिसो तिविहो-परिणामगो अपरिणामगो अतिपरिणामगो, तो एत्थ अपरिणामग-अतिपरिणामगाणं पडिसेहो। ३. निशीथभाष्य, ६७०२, ६७०३ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003556
Book TitleNavsuttani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages1316
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size29 MB
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