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हैं, यह नियुक्ति और चणि दोलों से फलित नहीं होता। यह संभव है कि इस उल्लेख के आधार पर जिनचरित्र, गणधरावलि और स्थविरावलि ये सब इसके साथ जोड़ दिए गए। महावीर चरित्र का भी नियुक्ति में उल्लेख नहीं है।
पर्यषणाकल्प के पाठसंशोधन में प्रयुक्त 'ध' संकेतित आदर्श में पाठ संक्षिप्त है। उसमें नमि से अजित तक तीर्थंकरों का वर्णन नहीं है। उसके स्थान पर इस प्रकार लिखा हुआ है-अथाग्रे चतुविशति २४ जिनानां उत्तरकालम् । सुत्र १८३ से २२२ तक गणधरावलि और स्थविरावलि
'ता' संकेतित ताडपत्रीयादर्श में २१ से ३५ तक के सूत्र नहीं हैं । स्वप्नवर्णन संक्षिप्त है। उसका विस्तार बाद में हुआ है। मुनि पुण्यविजयजी ने भी स्वप्न के वर्णन को अर्वाचीन स्वीकार किया है।
आज हमारे समक्ष कल्पगूत्र की जो प्रतियां हैं, उनमें 'खंभात' के 'श्री शांतिनाथ ताडपत्रीय भडार' की प्रति सबसे प्राचीन है। यह विक्रम संवत् १२४७ की है। इस प्रति में १४ स्वप्न विषयक में मन वर्णक ग्रन्थ बिल्कुल है ही नहीं। इसी प्रकार मैंने संशोधन के लिए जिन छह प्रतियों का संपूर्ण रूप से उपयोग किया है, उनमें से 'ग' और 'छ' संज्ञक इन दो प्रतियों में स्वप्न के विषय का वर्णक ग्रन्थ प्रकारान्तर से और अत्यन्त संक्षिप्तरूप में प्राप्त होता है। जबकि दूसरी प्रतियों में वर्तमान में प्रचलिन स्वप्न विषयक वर्णक ग्रन्थ अक्षरशः मिलता है। इस प्रकार चौदह स्वप्न विषयक तीन वाचनान्तर मेरे देखने में आए हैं। श्रीमान् चूणिकार और उनके पीछे-पीछे चलने वाले टिप्पणकार स्वप्न सम्बन्धी वर्णक ग्रन्थ के विषय में मौन है। स्वप्न संबंधी वर्णक ग्रंथ के एक भी शब्द की वे व्याख्या नहीं करते। यह सब देखकर स्वप्न संबंधी प्रचलित वर्णक ग्रंथ की मौलिकता के विषय में जरूर शंका होती है। किन्तु उसके साथ दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि त्रिशला क्षत्रियाणी चौदह स्वप्न देखकर जागृत होती है और उन चौदह स्वप्नों के नाम के पश्चात् तत्काल "तए णं सा तिसला खत्तियाणी इमे एयारूवे ओराले चोद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा" यह सूत्र आता है। अर्थात् त्रिशला क्षत्रियाणी ये और इस प्रकार के उदार चौदह महास्वप्नों को देखकर जागृत हई, इस सूत्र में 'ये और इस प्रकार के उदार' ये वाक्य देखकर हमारे मन में यह सहज प्रश्न होता है कि इस प्रकार के उदार अर्थात् कैसे उदार ? इस प्रकार का प्रश्न या जिज्ञासा, हमें चौदह स्वप्न विषयक वर्णकग्रन्थ के अस्तित्व की कल्पना की ओर खींच ले जाती है। और इसी कारण से इस स्थान पर चौदह स्वप्न विषयक किसी न किसी प्रकार का वर्णक ग्रन्थ होना अनिवार्य हो जाता है। किन्तु जब तक हमारे समक्ष दूसरी प्राचीन प्रतियां न हों, तब तक वह वर्णकग्रन्थ कैसा होना चाहिए इसका निर्णय कठिन हो जाता है। वर्तमान में प्रचलित वर्णकग्रंथ की मौलिकता के विषय में शंका है, फिर भी इतना ध्यान रखना अति आवश्यक है कि प्रचलित स्वप्न विषयक वर्णकग्रन्थ अर्वाचीन हो तो भी वह अनुमानतः हजार वर्ष से अर्वाचीन तो नहीं ही है।'
उक्त मीमांसा के आधार पर हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि “पर्युषणाकल्प" अनेक कालखण्डों में संकलित है। देवद्धिगणी की वाचना के उत्तरवर्ती संकलन को आगम की कोटि
१. कल्पसूत्र, मुनि पुण्यविजयजी द्वारा लिखित भूमिका पृ० ६-१०।
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