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जाता था।
पुरिमचरिमाण कप्पो, मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि ।
इह परिकहिया जिणगणहराइ थेरावलिचरित्तं ।। चूणि--'पुरिमचरिमाण य तित्थगराणं एस मग्गो चेव, जहा-वासावासं पज्जोसवेतव्वं, पडउ वा वासं मा वा । मज्झिमगाणं पुण भयणिज्जं । अवि य वद्धमाणतित्थ म्मि मंगलनिमित्तं जिणगणधरावलिया सव्वेसि च जिणाणं समोसरणाणि परिकाहिज्जति ।
चूणि में महावीर चरित्र के पश्चात् स्थविरावलि व्याख्यात है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के चरित्र व्याख्यात नहीं हैं।
इन दोनों व्याख्याओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तुत अध्ययन का 'पर्यषणाकल्प' मूल था। महावीरचरित्र और स्थविरावलि ये दोनों देवद्धिगणि की वाचना के समय जुड़े। इसका साक्ष्य महावीर चरित्र और स्थविरावलि का अंतिम सूत्र है-समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीणस्स नव वाससयाई विइक्कंताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरकाले गच्छइ । वायणंतरे पुण-अयं तेणउए संवच्छरकाले गच्छद--इति दीसइ ॥१०७।।
थेरस्स णं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगोत्तस्स अज्जफग्गुमित्ते थेरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते ।।२२२।। तेवीस तीर्थंकरों के विवरण की तथा स्थविरावलि की चूणि नहीं है।'
इससे स्पष्ट है कि ये दोनों चूणि की रचना के पश्चात् इसके साथ जोड़े गए। मनि पूण्यविजयजी ने लिखा है---गणधर आदि स्थविरों की आवली तथा सामाचारी ग्रंथ होने की साक्षी निर्यक्तिकार और चणिकार—ये दोनों स्थविर 'पुरिमचरिमाण कप्पो...." (नि० गा ६२) और उसकी चणि द्वारा देते हैं। गणधरादि स्थविरों की आवली आज कल्पसूत्र में जिस रूप में देखने को मिलती है, वैसी और उतनी तो चतुर्दशपूर्वधर भगवान् श्री आर्य भद्रबाहुस्वामी प्रणीत कल्पसूत्र में हो ही नहीं सकती। इसलिए जब प्रस्तुत कल्पसूत्र को अयवा आगमों को पुस्तकारूढ़ किया, उस युग के स्थविरों ने इसे प्रस्तुत किया है-यह कहना ही आज विशेष उचित है। एक प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित होता है-आज की अति अर्वाचीन अर्थात् १६वीं १७वीं शताब्दी में लिखित प्रतियों में जो स्थविरावलि देखी जाती है, यह कहां से आई ? कारण कि खंभात, अहमदाबाद, पाटण, जैसलमेर आदि की अनेक ताडपत्रीय प्रतियों को देखा, परन्तु मुझे बाद के स्थविरों से संबद्ध स्थविरावली किसी भी प्रति में नहीं मिली। ऐसा होने पर भी यह मानने के लिए हमारा मन नहीं होता कि यह अंश निराधार है। इसलिए इस विषय में और अधिक अन्वेषण करना शेष रह जाता है।
___ नियुक्ति में जिन, गणधर और स्थविरावलि के कथन का उल्लेख है, किन्तु वे इस ग्रंथ के अंश
१. दशाश्रुतस्कंध, मूलनियुक्ति चूणि, पत्र ६३ । २. वही, मूलनियुक्ति चूणि, पत्र ६५ । ३. पर्युषणाकल्प, सूत्र १०८-१८१ ४. वही, सूत्र १८६-२२२ ५. कल्पसूत्र, मुनि पुण्यविजयजी द्वारा लिखित भूमिका पृ० १० ।
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