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सन्निवाएणं महया इड्ढीए मह्या जुइए मह्या बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसगग.. पप्पवाइयरवेणं संख-पणव-पडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुदक्क-मुरय-मुइंग-दंदुभि-निग्धोसनाइयरवेण णियगपरिवालसद्धि संपरिवुडा साइं साइं जाणविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणा" । संक्षेपीकरण की प्रक्रिया में अन्य आगमों में नन्दी सूत्र के उल्लेख उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा किये गये, इस संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किन्त देवद्धिगणी ने आगमों को लिपिबद्ध करते समय संक्षिप्त पाठ की प्रणाली न अपनाई हो यह नहीं कहा जा सकता, इसलिए प्रस्तुत आगम की रचना आगम वाचना के पूर्व हुई, इन स्वीकृति में कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। मुख्य व्याख्या ग्रंथ १. नंदीचूणि, २. नंदीटीका (हरिभद्र) ३. नंदीटीका (मलयगिरि)
५. अनुयोगद्वार नामबोध
यह व्याख्या सूत्र है । अनुयोग का अर्थ है-याख्या। इस आगम का कोई स्वतंत्र प्रतिपाद्य विषय नहीं है । इसमें आगमसूत्रों की व्याख्या पद्धति का निर्देश है।
रचनाकाल और रचनाकार
प्रस्तुत आगम के कर्ता आर्यरक्षितसूरि माने जाते हैं। इनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है। ये गृहस्थ-जीवन में नैयायिक-न्यायदर्शन के विद्वान् थे। इन्होंने न्यायदर्शन सम्मत चतुर्विध प्रमाण का समावेश किया।
विषयवस्तु
व्याख्या-पद्धति के चार अंग बताए गए हैं.---१. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम, ४. नय। नियुक्तियों ने निक्षेप पद्धति की प्रधानता रही है। प्रस्तुत आगम में उसकी स्वीकृति मिलती है। इसका प्रारम्भ पांच ज्ञान के निर्देश से होता है। प्रमाण के स्वार्थ और पार्थ चर्चा का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु चार ज्ञान स्थाप्य हैं । उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा--ये सब श्रुतज्ञान के होते हैं। इससे फलित होता है कि चार ज्ञान स्वार्थ हैं और श्रुतज्ञान परार्थ है।
आर्यरक्षितसूरि ने पांच ज्ञान और चार प्रमाणों का निर्देश किया है, किन्तु दोनों के समन्वय का प्रयत्न नहीं किया। उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने उपमान के स्वतंत्र प्रमाण होने का निरसन किया है। प्रत्यक्ष और परोक्ष---इस प्रमाण-द्वयी की परम्परा में अनुमान भी स्वतंत्र प्रमाण नहीं है। यह परोक्ष प्रमाण का ही एक अंग है। आचार्य देवद्धिगणी ने आर्थरक्षितसूरि द्वारा संगृहीत प्रमाण चतुष्टयी का स्थानांग' और भगवतीर--दोनों आगमों में संकलन किया है।
भावप्रमाण के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं -१. गुणप्रमाण, २. नयप्रमाण. ३. संख्याप्रमाण । नयप्रमाण का विवेचन प्रस्थक, वसति और प्रदेश के दृष्टान्तों द्वारा किया गया है। आगम आहित्य में १. ठाणं ४।५०४॥ २. भगवती ५९७ ।
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