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________________ 폭력 कृत वाचना का उल्लेख न होना स्वाभाविक है । देवगण ने वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (१८० या १९३ विक्रम की छठी शताब्दी) में आगम की वाचना की थी। उस वाचना में जो आगम व्यवस्थित किये तथा जिन आगमों के बारे में जानकारी उपलब्ध थी उनकी तालिका नन्दी मूत्र में दी गई। इससे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि प्रस्तुत आगम की रचना वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी के दसवें दशक के आसपास हुई थी। चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत आगम के कर्ता दृष्यगणि के शिष्य देववाचक हैं। उनका aftaraare वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी ( विक्रम की छठी शताब्दी का दूसरा दशक ) है । आवश्यक निर्मुक्ति में नन्दी सूत्र का उल्लेख मिलता है। देवगणी की आगम वाचना से पूर्व प्रस्तुत सूत्र की रचना हो चुकी थी। भगवती आदि में उपलब्ध नन्दी के उल्लेखों के आधार पर यह कल्पना की जा सकती है, फिर भी एक प्रश्न असमाहित रह जाता है कि भगवती आदि में नंदी सूत्र के उल्लेख स्वयं देवद्धिगणी ने किये अथवा उनके उत्तरकाल में किये गये । आगमों के संक्षेपीकरण का उपक्रम कई बार हुआ था। पं० बेचरदास दोशी के अनुसार पाठ संक्षेपीकरण देवद्विगणी क्षमाश्रमण ने किया था। उन्होंने लिखा है- देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगमों को ग्रन्थबद्ध करते समय कुछ महत्त्वपूर्ण बातें ध्यान में रखीं। जहां-जहां शास्त्रों में समान पाठ आये वहां-वहां उनकी पुनरावृत्ति न करते हुए उनके लिए एक विशेष ग्रन्थ अथवा स्थान का निर्देश कर दिया। जैसे-"जहा उववाइए जहा पण्णवणाए" इत्यादि एक ग्रन्थ में वही बात बार-बार आने पर उसे पुनः न लिखते हुए "जाव" शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया। जैसे - " नागकुमारा जाय विहरन्ति ते काले जाव परिसा विम्या" इत्यादि । इस परम्परा का प्रारंभ भले ही देवर्द्धिगणी ने किया हो, किन्तु इसका विकास उनके उत्तरवर्ती काल में भी होता रहा है। वर्तमान मे उपलब्ध आदर्शों में संक्षेपीकृत पाठ की एकरूपता नहीं है। एक आदर्श में कोई सूत्र संक्षिप्त है तो दूसरे में वह समग्र रूप से लिखित है। इसका उल्लेख भी किया है। उदाहरण के लिए औपपातिक सूत्र वा" तथा "अयबंधवाणि वा जाय अण्णवराई वा " ये दो पाठां मुख्य आदर्श थे, उनमें ये दोनों संक्षिप्त रूप में थे, किन्तु दूसरे आदर्शों में ये समग्र रूप में भी प्राप्त ये वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है। लिपिकर्ता अनेक स्थलों में अपनी सुविधानुसार पूर्वागत पाठ को दूसरी बार नहीं लिखते और उत्तरवर्ती आदशों में उनका अनुगरण होता चला जाता । उदाहरण स्वरूप-रायपसेणइय सूत्र में "सन्दिडीए अकालपरिहीणा” ऐसा पाठ मिलता है। इस पाठ में अपूर्णता सूचक संकेत भी नहीं है। "सबिडिए" और "अकाल परिहीण" के मध्यवर्ती पाठ की पूर्ति करने पर समग्र पाठ इस प्रकार बनता है-"सबिडीए सव्वजुत्तीए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वावरेणं सव्वभूविभूव्यसंमेणं व्यवस्थ-गंध-मनालंकारेण सम्वदिव्ववुडियस में टीकाकारों ने स्थान-स्थान पर "अयपायाणि वा जाव अण्णयराई मिलते हैं। वृत्तिकार के सामने जो १. पृ० १३ एवं कलमंगलवारो वेरावलिकमे य दंसिए अरिमु य दंसितेसु दुस्समणिसीसो देववायगो साहुजन हितट्ठाए इणमाह । २. आवश्यकनिर्मुक्ति गा० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003556
Book TitleNavsuttani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages1316
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size29 MB
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