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________________ XO ज्ञान के मूल्यांकन का वास्तविक दृष्टिकोण है । रचनाकाल और रचनाकार प्रस्तुत सूत्र की रचना के साथ वाचनाओं का इतिहास जुड़ा हुआ है । नन्दी की चूर्णि में स्कन्दिलाचार्य की वाचना या माथुरी वाचना का उल्लेख मिलता है । स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग 'अर्धभरत' में प्रचलित है ।" चूर्णिकार ने प्रश्न उपस्थित किया कि स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग क्यों प्रचलित है ? उसका समाधान देते हुए कहा कि बारह वर्षीय भयंकर दुर्भिक्ष हुआ उस अवधि में आहार की सम्यग् उपलब्धि न होने के कारण मुनिजन श्रुत का ग्रहण, गुणन और अनुप्रेक्षा नहीं कर सके । फलस्वरूप श्रुत नष्ट हो गया । बारह वर्षों के बाद सुभिक्ष होने पर मथुरा में साधु-संघ का बड़ा सम्मेलन हुआ । उसमें स्कन्दिलाचार्य प्रमुख थे । सम्मेलन में भाग लेने वाले साधुओं में जो श्रुतधर साधु बचे थे और उनकी स्मृति में जितना श्रुत बचा था उसे संकलित कर कालिक श्रुत ( अंगप्रविष्ट श्रुत) का संकलन किया गया, इस संकलन को वाचना कहा जाता है । यह वाचना मथुरा में हुई। इस वाचना का नाम माथुरी वाचना है और वह वाचना स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में हुई इसलिए उस वाचना में संकलित श्रुत को स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहा गया । दूसरा अभिमत यह है कि उस समय श्रुत नष्ट नहीं हुआ था किन्तु अनुयोगधर आचार्य दिवंगत हो गये, केवल स्कन्दिलाचार्य बचे थे । उन्होंने मथुरा में साधु परिषद् में अनुयोग का प्रवर्तन किया इसलिए उनका अनुयोग माथुरी वाचना कहलाता है। और वह अनुयोग स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग कहा जाता है । प्रस्तुत स्थविरावलि की चूर्णि में केवल स्कन्दिलाचार्य की वाचना का उल्लेख है । चतुर्थ वाचना देवद्धिगणी ने की थी। वे प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता हैं । स्थविरावलि में उनका और उनके द्वारा १. नंदी थेरावलि गा० ३२ : जेसि इमो अणुओगो पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनगर निग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥ २. नन्दी चूर्णि पृ० & कहं पुण तेसि अणुओगो ? उच्प्रते - बारससंवच्छरिए महंते दुब्भिक्खकाले भत्तट्ठा अण्णणतो फिडिताणं गहण - गुणणा-ऽणुप्पेहाभावातो सुते विप्पणट्ठे पुणो सुभिक्खकाले जाते मधुराय महंते साहुसमुदए खंदिलायरियप्पमुहसंघेण "जो जं संभरति" त्ति एवं संप्रडितं कालिय सुतं । जम्हा य एतं मधुराए कतं तम्हा माधुरा वायणा भण्णति । सा य खंदिलायरियसम्मय त्ति कातुं तस्संतियो अणुओगो भणति अण्णे भांति जहा सुतं ण णट्ठ तम्मि दुब्भिक्खकाले जे अण्णे पहाणा अणुओगधरा ते विट्ठा, एगे खंदिलायरिए संधरे, तेण मधुराए अणुयोगो पुणो साधूनं पवित्तितो त्ति माधुरा वायणा भण्णति, तस्संतितो य अणियोगो भण्णति । नन्दी हारीभद्रयवृत्ति ( पृ० १७, १८) तथा मलयगिरि की नंदी वृत्ति (पत्र ५१ ) में भी चूर्ण का अभिमत उद्धृत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003556
Book TitleNavsuttani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages1316
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size29 MB
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