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की है(१) स-उत्तर
-पहला अध्ययन (२) निरुत्तर
.-छत्तीसवां अध्ययन (३) स-उत्तर-निरुत्तर
-बीच के सारे अध्ययन किन्तु 'उत्तर' शब्द की यह अर्थ-योजना चूणि कार की दृष्टि में अधिकृत नहीं है । उनकी दृष्टि में अधिकृत अर्थ वही है जो नियुक्तिकार के द्वारा प्रस्तुत है । नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन आचारांग के उत्तरकाल में पढ़े जाते थे, इसलिए उन्हें 'उत्तर अध्ययन' कहा गया। श्रतकेवली शय्यंभव (वीर-निर्वाण सं०६८) के पश्चात ये अध्ययन दशकालिक के उत्तरकाल में पढ़े जाने लगे। इसलिए ये 'उत्तर अध्ययन ही बने रहे। यह 'उत्तर' शब्द की संगत व्याख्या प्रतीत होती है।
दिगम्बर-आचार्यों ने भी 'उत्तर' शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है । धवलाकार (वि० ६ वीं शताब्दी) के मतानुसार 'उत्तराध्ययन' उत्तर-पदों का वर्णन करता है । यह 'उत्तर' शब्द समाधान सूचक है।' अंगपण्णत्ति (वि० १६ वीं शताब्दी) से 'उत्तर' शब्द के दो अर्थ फलित होते हैं
(१) उत्तरकाल-किसी ग्रन्थ के पश्चात् पढ़े जाने वाले अध्ययन । (२) उत्तर--प्रश्नों का उत्तर देने वाले अध्ययन ।
ये अर्थ भी 'उत्तर' और 'अध्ययनों के सम्बन्ध की वास्तविकता पर प्रकाश डालते हैं।
उत्तराध्ययन में प्रश्नोत्तर-शैली से लिखित पांच अध्ययन हैं-६, १६, २३, २५ और २६ । आंशिक रूप में कुछ प्रश्नोत्तर अन्य अध्ययनों में भी हैं। इस दृष्टि से 'उत्तर' का समाधान-सूचक अर्थ संगत होते हुए भी पूर्णत: व्याप्त नहीं है।
१. उत्तराध्ययनणि, पृष्ठ ६ :
विणयसुयं सउत्तरं जीवाजीवाभिगमो णिरुत्तरो, सर्वोत्तर इत्यर्थः, सेसज्झयणाणि सउत्तराणि णिरुत्तराणि य, कहं ? परीसहा विणयसुयस्स उत्तरा चउरंगिज्जस्स तु पुव्वा इति का
णिरुत्तरा। २. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ३ :
कमउत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु ।
तम्हा उ उत्तरा खलु अझयणा हुंति णायव्वा ।। ३. उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति, पत्र ५:
विशेषश्चायं यथा--शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त
इति । ४. धवला, पृष्ठ ६७ (सहारनपुर प्रति, लिखित) :
उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ । ५. अंगपण्णत्ति ३३२५, २६ :
उत्तराणि अहिज्जंति, उत्तरज्झयणं पदं जिणिदेहि ।
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