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१. उच्चार प्रतिक्रमण
२. प्रस्रवण प्रतिक्रमण
३. इत्यरिक प्रतिक्रमण
दश कल्पों में आठवां कल्प प्रतिक्रमण है। भगवान् पार्श्व के समय में प्रतिक्रमण करने की अनिवार्यता नहीं थी । भगवान् महावीर ने उसे अनिवार्य कर दिया' ।
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पेढालपुत्र उदक भगवान् पाश्र्व के शिष्य थे। गणधर गौतम के संपर्क में आने के बाद उन्होंने भगवान् महावीर से पंच महाव्रतात्मक-सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार किया। भगवान् महावीर ने स्वयं कहा- मैंने श्रमण निर्बंधों के लिए पंच महाव्रतात्मक संप्रतिक्रमण धर्म का प्रतिपादन किया है। इस प्रतिपादन से यह स्पष्ट होता है कि प्रतिक्रमण महावीर की देन है । भगवान् पार्श्व के समय में सामायिक आवश्यक था किन्तु उसे षडावश्यक का रूप महावीर के शासनकाल में मिला । पहावश्यक के विषय का प्रतिपादन महावीर ने किया और उसका सूत्ररूप में गुम्फन गणधरों ने किया।
मुख्य व्याख्या ग्रंथ
कृत ),
१. आवश्यकनियुक्ति, २. आवश्यकभाष्य, ३. आवश्यकचूणि, ४. बावश्यकवृत्ति (हरिभद्र५. आवश्यकवृत्ति (मलयगिरि), ६. आवश्यकनियुक्तिदीपिका, ७. आवश्यकवृत्ति, आवश्यकविवरण ९. आवश्यक टिप्पणकम् ( मलधारी हेमचन्द्र ) ।
३. ठाणं २६२
४. यावत्कषिक प्रतिक्रमण ५. यत्किंचि मिथ्या प्रतिक्रमण ६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण
२,३ दशवंकालिक और उत्तराध्ययन
जैन आगमों में दशर्वकालिक और उत्तराध्ययम का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्वेताम्बर और दिगम्बर - दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने इनका बार-बार उल्लेख किया है। दिगम्बर-साहित्य में अंग बाह्य के चौदह प्रकार बतलाए गए हैं । उनमें सातवां दशवेकालिक और आठवां उत्तराध्ययन है* ।
श्वेताम्बर साहित्य में अंग बाह्य श्रुत के दो मुख्य विभाग हैं - ( १ ) कालिक और
१. देखें- ठाणं ६०१०३ का दिव्यण, पृष्ठ ७०२ ।
२. सूयगडो, २७/३८ :
तणं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंच महत्वइयं सपठिषकमणं धम्मं उवसंपज्जित्ताणं विहरद्द |
से जहाणाम अजो !
पण्णत्ते ।
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मए समणाणं णिग्गंचाणं पंचमहव्वतिए सपविकमणे अचेलए धम्मे
४. (क) कवापाड (जयधवला सहित) भाग १. पृष्ठ १३।२५
दसवेवालियं उत्तरज्भयणं ।
(ख) गोम्मटसार ( जीव-काण्ड), गाथा ३६७ :
दसवेयालं च उत्तरज्भयणं ।
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