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________________ २८० जीवाजीवाभिगमे पंचेंदियतिरिक्खजोणिया अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। से तं गब्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया । से तं जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ॥ १४१. से किं तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? थलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिया दुविधा पण्णत्ता, तं जहा-चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ॥ १४२. से किं तं चउप्पदथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-समुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया गब्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचें दियतिरिक्खजोणिया य, जहेव जलयराणं तहेव चउक्कतो भेदो। सेत्तं चउप्पदथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ॥ १४३. से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया' भयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया' ॥ - १४४. से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-जहेव जलयराणं तहेव चउक्कतो भेदो। एवं भयपरिसप्पाणवि भाणितव्वं । से तं भयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया । से तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया॥ १४५. से किं तं खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–संमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया गब्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य॥ १४६. से किं तं समुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिमखयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--पज्जत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया अपज्जत्तगसंमुच्छिमखयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य। एवं गब्भवक्कंतियावि जाव पज्जत्तगगब्भवक्कंतियावि अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियावि ॥ १४७. खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं' भंते ! कतिविधे जोणिसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा। १४८. अंडया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी पुरिसा णपुंसगा॥ १४६. पोतया तिविधा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी पुरिसा णपुंसगा। तत्थ णं जेते संमच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा॥ १५०. तेसि' णं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छल्लेसाओ १. १४०-१४५ एतेषां सूत्राणां स्थाने 'ता' प्रतौ २. उरग (ग)। मलयगिरिविवरणे च संक्षिप्तपाठो विद्यते-- ३. भुयग' (ग)। एवं चतुपदा उरयं भुय प पक्खीवि (ता); ४. पक्खीणं (ता); पक्षिणां भदन्त ! (मव)। एवं चतुष्पदा उर:परिसर्पा भुजपरिसर्पाः ५. एएसि (ट); एतेषां (मवृ)। पक्षिणश्च प्रत्येकं चतुष्प्रकारा वक्तव्याः (मवृ)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003554
Book TitleUvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1987
Total Pages854
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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