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________________ १५ पाठ में वर्ण - परिवर्तन से बहुत बार अर्थ नहीं बदलता किन्तु कहीं-कहीं अर्थ समझने में कठिनाई होती है और वह बदल भी जाता है । ६ ।ε० सूत्र में 'हव्वि' पाठ है उसके 'हेट्ठि' और 'हिट्ठि' – ये दो पाठान्तर मिलते हैं । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने यहां 'हव्वि' का अर्थ 'सम' किया है, देखें – वृत्ति पत्र २७१ । स्थानांग सूत्र ( ८।४३ ) में इसी प्रकरण में 'हेट्ठि' पाठ है । वहां अभयदेवसूरि ने उसका अर्थ 'ब्रह्मलोक के नीचे' किया है, देखें — स्थानांगवृत्ति पत्र ४१० । कहीं-कहीं लेखक के समझभेद और लिपिभेद के कारण भी पाठ का परिवर्तन हुआ है । ६।१६५ सूत्र में 'ओधरेमाणी - ओधरेमाणी' पाठ है । कुछ प्रतियों में यह पाठ 'उवधरेमाणीओउवधरेमाणीओ' इस रूप में मिलता है । एक प्रति में यह पाठ 'उवरिधरेमाणीओ-उवरिधरेमाणीओ' इस रूप में बदल गया । पाठ - परिवर्तन के कुछेक उदाहरण इसलिए प्रस्तुत किए गए हैं कि पाठ - संशोधन में केवल प्रतियों या किसी एक प्रति को आधार नहीं माना जा सकता । विभिन्न आगमों, उनकी व्याख्याओं और अर्थ संगति के आधार पर ही पाठ का निर्धारण किया जा सकता है । संक्षेपीकरण और पाठ संशोधन की समस्या देवगण ने जब आगम सूत्र लिखे तब उन्होंने संक्षेपीकरण की जो शैली अपनाई उसका प्रामाणिक रूप प्रस्तुत करना बहुत कठिन कार्य है और वह कठिन इसलिए है कि उत्तरकाल में अनेक आगमधरों ने अनेक बार आगम पाठों का संक्षेपीकरण किया है। संभव है कुछ लिपिकों भी लेखन की सुविधा के लिए पाठ-संक्षेप किया है । १३।२५ सूत्र के संक्षिप्त पाठ में भवनपति देवों के प्रकार आदि जानने के लिए दूसरे शतक के देवोद्देशक की सूचना दी गई है, किन्तु वहां (२।११७, पृ० १११) विस्तृत पाठ नहीं है अपितु प्रज्ञापना के स्थानपद को देखने की सूचना मिलती है । १६।३३ सूत्र के संक्षिप्त पाठ में तृतीय शतक (सूत्र २७, पृ० १३०) देखने की सूचना दी गई है, किन्तु वहां पाठ पूरा नहीं है। वहां ' राय सेणइय ' सूत्र देखने की सूचना दी गई है । १६।७१ सूत्र के संक्षिप्त पाठ में उद्रायण का प्रकरण ( १३ | ११७, पृ० ६१४) देखने की सूचना है। वहां पाठ पूरा नहीं है । इसी प्रकार १६ १२१, १८५६, १६७७ में विस्तृत पाठ की सूचनाएं हैं, किन्तु सूचित स्थलों में पाठ विस्तृत नहीं है । उक्त सूचनाओं के आधार पर यह अनुमान होता है कि जिस समय में पाठ संक्षिप्त किए गए उस समय सूचित स्थलों के पाठ पूर्ण थे । उसके पश्चात् किसी अनुयोगधर आचार्य ने उन पूर्ण पाठों का भी संक्षेपीकरण कर दिया। संक्षेपीकरण के लिए 'जाव', 'जहा' आदि पदों का प्रयोग किया गया है । कहीं-कहीं 'जाव' का अनावश्यक - सा प्रयोग हुआ है । वह या तो लिपिक का प्रमाद रहा है या प्रवाह के रूप में वह लिखा गया है। जहां 'जाव' का प्रयोग है वहां लिपिकारों ने पर्याप्त स्वतंत्रता बरती है । किसी ने 'पावफल जाव कज्जंति' लिखा है तो किसी ने 'पावफलविवाग जाव कज्जति' लिखा है । कहीं-कहीं 'विद' (७/१६६), 'पयोग' (८।१७), 'सहस्स' (१६।१०३) जैसे छोटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003552
Book TitleAngsuttani Part 02 - Bhagavai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1158
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size19 MB
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