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________________ १४ और 'उ' का भेद करना कठिन होता है । यही कारण है कि आधुनिक प्रतियों में बहुलतया 'ओ' के स्थान में 'उ' मिलता है । जो प्रतियां भाषाविद् लिपिकारों द्वारा लिखी गईं, उनमें 'ओकार ' मिलता है; किन्तु जो केवल लिपिकों द्वारा लिखी गईं, उनमें 'ओकार' के स्थान में 'उकार' हो गया । 'ओवासंतरे' और 'उवासंतरे' यह पाठ भेद भी उक्त कारण से ही हुआ है। देखें - सूत्र १1३२ ( पृ० ६६), सूत्र ९।४४४ ( पृ० ७७)। ८२४२ सूत्र में 'छेत्तेहि' पाठ है । लिपिभेद होते-होते 'बित्तेहि', 'छत्तेहि', 'चितेहि'- -इस प्रकार अनेक पाठ बन गए । ८।३०१ में 'तदा' के स्थान पर 'तहा' पाठ हो गया । कुछ प्रतियों में संक्षिप्त वाचना है। वृत्तिकार को भी संक्षिप्त वाचना प्राप्त हुई थी इसलिए उन्होंने लिखा कि अन्ययूथिक वक्तव्यता स्वयं उच्चारणीय है । ग्रन्थ के बड़ा होने के भय से वह लिखी नहीं गई । वृत्तिकार ने वृत्ति में संक्षिप्त पाठ को पूर्ण किया। कुछ लिपिकों ने वृत्ति के पाठ को मूल में लिखा और पूर्ण पाठ की वाचना संक्षिप्त पाठ की वाचना से भिन्न हो गई । कुछ आदर्शो में संक्षिप्त और विस्तृत — दोनों वाचनाओं का मिश्रण मिलता है। सूत्र २।४७ ( पृ० ८८) में 'खंदया पुच्छा' यह संक्षिप्त पाठ है। किसी लिपिकार ने प्रति के हासिये (Margin) में अपनी जानकारी के लिए इसका पूरा पाठ लिख दिया और उसकी प्रतिलिपियों में संक्षिप्त और विस्तृत — दोनों पाठ मूल में लिख दिए गए, देखें – ५१२२ सूत्र का पादटिप्पण ( पृ० २०६ ), २।११८ सूत्र का प्रथम पादटिप्पण ( पृ० ११२ ) । १९।५९ में पूरा पाठ और 'जहा ओवाइए' यह संक्षिप्त पाठ -- दोनों साथ-साथ लिखे हुए हैं । असोच्चा केवली के प्रकरण में भी ऐसा ही मिलता है । कुछ प्रतियों में वृत्ति में उद्धृत पाठ का समावेश हुआ है, देखें - २७५ सूत्र का दूसरा पादटिप्पण ( पृ० ६९ ) । कहीं-कहीं वृत्तिकार द्वारा किया हुआ वैकल्पिक अर्थ भी उत्तरवर्ती प्रतियों में मूल पाठ के रूप में स्वीकृत हो गया, देखें - ५।५१ सूत्र का प्रथम पादटिप्पण ( पृ० १६४ ) । पाठ-संशोधन में दूसरे आगमों के पाठों को भी आधार माना जाता है । २।१४ सूत्र में 'चियतं ते उरघरप्पवेसा' इस पाठ के अनन्तर सभी प्रतियों में 'बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमणपच्चक्खाण-पोस होववासे हि यह पाठ है। वहां इसकी अर्थ- संगति नहीं होने के कारण वृत्तिकार को 'तैर्युक्ता इति गम्य' यह लिखना पड़ा, किन्तु ओवाइय और रायपसेणइय सूत्र को देखने से पता चलता है कि उक्त पाठ प्रतियों में जहां लिखित है वहां नहीं होना चाहिए। उक्त दोनों सूत्रों के आधार पर आलोच्य पाठ का क्रम इस प्रकार बनता है - 'ओसह - भेसज्जेणं पडिलाभमाणा बहूहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।' २२।१ सूत्र में सभी आदर्शों में 'सारकल्लाण जाव केवइ' पाठ लिखित है, किन्तु यहां 'जाव' का कोई प्रयोजन नहीं है । भगवती ८।२१७ तथा प्रज्ञापना के प्रथम पद के आधार पर 'जाव' के स्थान पर 'जावति' पाठ प्रमाणित होता है । १. इह सूत्रेऽन्ययूथिक वक्तव्यं स्वयमुच्चारणीयं ग्रन्थगौरवभयेनाऽलिखितत्वात्तस्य तच्चेदम् । वृत्तिपत्र १०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003552
Book TitleAngsuttani Part 02 - Bhagavai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1158
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size19 MB
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