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दोनों विवरणों की समीक्षा करने पर दो प्रश्न उपस्थित होते हैं
१. नन्दी में समवायांग का जो विवरण है, उससे उपलब्ध समवायांग क्या भिन्न नहीं है ?
२. क्या उपलब्ध समवायांग देवधिगणी की वाचना का है? यदि है तो समवायांग के दोनों विवरणों में इतना अन्तर क्यों ?
प्रथम प्रश्न के समाधान में यह कहा जा सकता है कि नन्दीगत समवायांग विवरण के अनुसार समवायांग सूत्र का अन्तिमवि षय द्वादशांगी के आगे अनेक विषय प्रतिपादित हैं। इससे ज्ञात होता है कि समवायांग का वर्तमान आकार नन्दीगत समवायांग विवरण से भिन्न है।
दूसरे प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन हैं, फिर भी इतना कहा जा सकता है कि आगमों की अनेक वाचनाएं रही हैं। इसीलिए प्रत्येक अंग के विवरण में अनेक वाचनाओं (परिता वाणा) का उल्लेख किया गया है । अभयदेवसूरि ने समवायांग की वृहद् वाचना का उल्लेख किया है' । इससे अनुमान किया जा सकता है कि नन्दी में लघु वाचना वाले समवायांग का विवरण है ।
अभयदेवसूरि को प्रस्तुत सूत्र के वाचनान्तर प्राप्त थे, ऐसा उनकी वृत्ति से ज्ञात होता है । समवायांग परिवर्धित आकार के विषय में दो अनुमान किये जा सकते हैं
१. प्रस्तुत सूत्र देवर्षिगणी की वाचना से भिन्न वाचना का है ।
२. अथवा द्वादशांगी के उत्तरवर्ती अंश देवगणी के पश्चात् इसमें जोड़े गए हैं।
यदि प्रस्तुत सूत्र भिन्न वाचना का होता तो इस विषय में कोई अनुभूति मिल जाती। ज्योतिकरण्ड माथुरी वाचना का है -- यह अनुश्रुति वराबर चलती आ रही है । उपलब्ध समवायांग भी यदि माथुरी वाचना का होता तो उस विषय की कोई अनुश्रुति मिल जाती ।
प्रथम अनुमान की पुष्टि की संभावना कम होने पर दूसरे अनुमान की संभावना बढ़ जाती बढ़ है। किन्तु भगवती तथा स्थानांग से दूसरे अनुमान का भी निरसन हो जाता है। भगवती में कुलकर तीर्थंकर आदि के पूरे विवरण के लिए समवायांग के अन्तिम भाग को देखने की सूचना दी गई है । इसी प्रकार स्थानांग में भी बलदेव- वासुदेव के पूरे विवरण के लिए समवायांग के अन्तिम भाग को देखने की सूचना दी गई है। इससे ज्ञात होता है कि परिशिष्ट-भाग देवगिणी के समय में ही जोड़ा गया था ।
१ (क) समवायांग वृत्ति पत्र ५० हवाचनापामनन्तरोक्तमविचद्वयं नाधीयते। (ख) वही पत्र ५८ वृहद्वाचनायामिदमन्यदतिशपमधीयते।
२. समवायांग वृत्ति, पत्र १४४: वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमेणेत्यभिहितम ३. भगवई शतक ५, उद्देशक ५ ।
४. ठाणं ६।१६,२० ।
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