SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 58] [ नन्दीसूत्र चार, मति श्रुत व मनःपर्यव ज्ञान वाले दस, मति, श्रुत, अवधिज्ञानी तथा चार ज्ञान के स्वामी केवलज्ञान प्राप्त करके एक सौ पाठ सिद्ध हो सकते हैं / (10) अवगहनद्वार-एक समय में जघन्य अवगाहना वाले उत्कृष्ट चार, मध्यम प्रवगाहना वाले उत्कृष्ट 108, उत्कृष्ट अवगाहना वाले दो सिद्ध हो सकते हैं / (11) उत्कृष्टद्वार-अनन्तकाल के प्रतिपाती यदि पुन: सम्यक्त्व प्राप्त करें तो एक समय में एक सौ पाठ, असंख्यातकाल एवं संख्यातकाल के प्रतिपाती दस-दस / अप्रतिपाती सम्यक्त्वी चार सिद्ध हो सकते हैं। (12) अन्तरद्वार--एक समय के अन्तर से अथवा दो, तीन एवं चार समयों का अन्तर पाकर सिद्ध हों। इसी क्रम से आगे समझना चाहिए। (13) अनुसमयद्वार-यदि पाठ समय पर्यंत निरन्तर सिद्ध होते रहें तो पहले समय में जघन्य एक, दो, तीन, उत्कृष्ट बत्तीस; इसी क्रम में दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें और आठवें समय में समझना / फिर नौवें समय में अवश्य अन्तर पड़ता है अर्थात् कोई जीव सिद्ध नहीं होता / 33 से 48 निरन्तर सिद्ध हों तो सात समय पर्यन्त हों, पाठवें समय में अवश्य अन्तर पड़ जाता है। यदि 46 से लेकर 60 पर्यन्त निरन्तर सिद्ध हों तो छह समय तक सिद्ध हों, सातवें में अन्तर पड़ जाता है / यदि 61 से लेकर 72 तक निरन्तर सिद्ध हों तो उत्कृष्ट पाँच समय पर्यंत ही हों, बाद में निश्चित विरह पड़ जाता है। यदि 72 से लेकर 84 पर्यंत सिद्ध हों तो चार समय तक सिद्ध हो सकते हैं, पांचवें समय में अवश्य अन्तर पड़ जाता है। यदि 85 से लेकर 66 पर्यंत सिद्ध हों तो तीन समय पर्यंत हो / यदि 97 से लेकर 102 सिद्ध हों तो दो समय तक हों, फिर अन्तर पड़ जाता है / यदि पहले समय में ही 103 से 108 सिद्ध हों तो दूसरे समय में अन्तर अवश्य पड़ता है / (14) संख्याद्वार--एक समय में जघन्य एक और उत्कृष्ट 108 सिद्ध हों। (15) अल्पबहुत्व-पूर्वोक्त प्रकार से ही है / (3) क्षेत्रद्वार मानुषोत्तर पर्वत के अन्तर्गत अढाई द्वीप, लवण और कालोदधि समुद्र हैं। कोई भी जीव सिद्ध होता है तो इन्हीं द्वीप समुद्रों से होता है / अढ़ाई द्वीप से बाहर केवलज्ञान नहीं हो सकता और केवलज्ञान के बिना मोक्षप्राप्ति संभव नहीं है। इसमें भी 15 उपद्वार हैं जिन्हें पहले की भांति समझना चाहिये। (4) स्पर्शनाद्वार जो भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं या आगे होंगे वे सभी प्रात्मप्रदेशों से परस्पर मिले हुए हैं / यथा- “एक माँहि अनेक राजे अनेक मांहि एककम् / " जैसे-हजारों, लाखों प्रदीपों का प्रकाश एकीभूत होने से भी किसी को किसी प्रकार की अड़चन या वाधा नहीं होती, वैसे ही सिद्धों के विषय में भी समझना चाहिए / यहाँ भी 15 उपद्वार पहले की तरह जाने / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy